रविवार, 23 मार्च 2014

जमुना

                                              
अपने जीवन में बहुत सी सशक्त महिलाओं से मेरा परिचय हुआ। कई  उच्चशिक्षित, आत्मनिर्भर ,बुद्धजीवी  एवं दबंग महिलाओं  से मेरा संपर्क रहा है,लेकिन जीवन जीने की कला को सीखने में जिन्हें मैंने अपनी प्रेरणा माना वे एक बहुत ही साधारण सी ,सीधी-साधी ,घरेलू  महिला थीं,  मेरी दादी -श्रीमती जमुना देवी। जिन्हें मैं  अम्मा कहा करती थी। अम्मा ने शायद कभी किसी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा था लेकिन अपने जीवन की पाठशाला ने उन्हें बहुत कुछ सिखा दिया था। आज जब भी कभी मैं छोटी -छोटी  समस्याओं से घबरा जाती हूँ तो बरबस ही वे मुझे याद  आ जाती है। सहनशीलता और सामंजस्य इन शब्दों का सही मतलब मुझे अम्मा ने ही सिखाया। अम्मा जिनकी छाया  में मैंने अपना बचपन बिताया, वे मुझे अपनी दादी के रूप में नहीं बल्कि अपने बचपन की एक सखी के रूप में याद  आती हैं। मैं  उनके साथ खेलती थी, नाचती-गातीं  थी,दुनिया भर की बातें करती थी। लेकिन अब उनके जाने के बाद मुझे समझ आया है कि  खेल खेल में ही अम्मा मुझे जिन्दगी का ककहरा समझा गयीं। अम्मा का स्वाभाव उनके नाम के अनुरूप ही था, जमुना की अरह ऊपर से चंचल और अन्दर से शांत,गंभीर । जो वृद्धावस्था तक एक सा ही रहा। नब्बे साल की उम्र तक भी उनमें किशोरियों जैसी चंचलता थी। दुबली पतली, छोटे  कद की अम्मा  में गज़ब की फुर्ती थी। अपनी युवावस्था के दिनों में वो कैसी रही होंगी ये तो उनकी धुंधली, ब्लैक एन वाईट  तस्वीरों को देख कर ही थोडा बहुत अन्दाजा अम्मा ने जो मुझे बताया उससे मैंने यही जाना की उकी शादी बारह वर्ष की उम्र में ही कर दी गयी। पाँच  बहनों वाले मध्यमवर्गीय परिवार में अमा दुसरे नंबर की संतान थीं। यही कारण था की उनकी बातों  में हमेशा उनकी ससुराल का ही वर्णन मिलता था। स्कूली शिक्षा न मिलने के बावजूद किताबें अम्मा के जीवन का अभिन्न हिस्सा थीं धार्मिक, किस्से-कहानियों की, नीम हकीम वाली, हस्त रेखा , अंक ज्योतिष, स्वप्न फल अदि हर अरह की किताबों को अम्मा बेहद रूचि से पढ़ती थीं। पुरानी  से पुरानी  किताब को भी वे जिल्द लगाकर संभल कर रखती थीं।
मेरे दादाजी श्री धरनीधर शर्मा एक बेहद ही आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे।
गोरा रंग, नीली आँखें, लम्बा कद कहा जाता है की वे जब अंग्रेजों के बीच बैठते थे तो बिलकुल उन जैसे ही लगते थे। और अम्मा इस के बिलकुल विपरीत थी। आकर्षक नैन नक्श होते हुए भी  अम्मा केवल रंग और कद काठी में बाबा से मेल नहीं खाती थीं। अम्मा का मायका आगरा की लालकिले वाली सड़क पर था जिसके एक तरफ यमुना नदी बहती है,जिसे यमुना किनारा रोड भी कहा जाता है। अम्मा बताती थीं की उनकी सगाई होने के बाद बाबा उसी रस्ते से अपने विद्यालय जाया करते थे तो उनकी बहाने चिल्लाकर कहती थीं जमुना देख तो कौन जा रहा है ? और अम्मा लपक कर घूंघट की ओट  में से छज्जे से बाबा को निहार लिया करती थीं।
एक बार जब शादी के बाद अम्मा और बाबा ट्रेन से सफ़र कर रहे थे तो उनके डिब्बे में बैठी एक अँगरेज़ महिला उन्हें देख कर कहने बोली की हिन्दुस्तानियों को शायद जोड़े बनाना नहीं आता है। इस पर अम्मा केवल मुस्कुरा कर रह गयीं थीं। लेकिन इन बातों  से उनके प्रेम में कभी अंतर नहीं आया। बाबा ज्वाला बैंक में मेनेजर हुआ करते थे। उनकी पोस्टिंग सहारनपुर में थी। शादी के 22 वर्ष तक अम्मा के कोई संतान नहीं हुयी थी। घर की बड़ी बहु सो छोटी उम्र में ही उनके सास ससुर उनसे बहुत से पोते  पोतियों की अपेक्षा करने लगे थे।बहुत इलाज कराया गया। किसी ने कुछ बताया और किसी ने कुछ। लेकिन जब अम्मा की देवरानी के भी संताने हो गयीं तो घरवालों का धेर्य टूटने लगा। वर्षों तक अम्मा बाँझ होने का लांक्षन सहती रही।लोगो के प्रश्नों और व्यंगों को सहती रहीं। कई बार तो बाबा के दुसरे विवाह कराये जाने की बात भी की जाने लगीं। लेकिन भगवान के अलावा और किसी के सामने विचलित नहीं हुयी। असीम धेर्य था अम्मा में। उनकी मूक प्रार्थनाओं को आखिर इश्वर ने सुन ही लिया और चोंतीस साल की उम्र में अम्मा की सूनी गोद भर ही गयी। पापा का जन्म हुआ। अम्मा बाबा को जैसे भगवन ही मिल गए हों। बड़े ही लाड़ -प्यार  से उन्होंने पापा का नाम राजकुमार रखा। पापा के जन्म के छः साल बाद उनके छोटे भाई का जन्म हुआ। अम्मा का जीवन बस केवल बाबा और उनके दो बेटों के ही इर्द गिर्द घूमता था। गृहस्थी की भागमभाग के बीच उन्होंने दुनियादारी भी सीखा ही ली। अम्मा थोडा बहुत हाथ भी देख लिया करती थीं। या तो वास्तव  में उन्हें हस्तरेखा का ज्ञान था या फेस रीडिंग कहिये कि अम्मा जो बतातीं  थी वे अधिकतर  बातें सच निकलती थीं। अम्मा बेहद ही प्रेमपूर्ण थीं। लोग उनकी बातों  को मंत्रमुग्ध होकर सुनते थे। वे हमेशा लोगो की प्रशंसा कर के उन्हें मनोबल दिया करती थीं।
          अपने अंतिम दिनों में अम्मा ने पैसों को हाथ लगाना छोड़ दिया था , क्योंकि उन्हें लगता था कि माया ही सब  दुखों का कारण है। या फिर बेटे बहुओं और नाती पोतों से भरे घर में उन्हें इसकी आवश्यकता नहीं महसूस होती थी। वजह चाहें जो भी हो उन्होंने जीवन को सही अर्थो में जिया और अंत तक उनके मन में और जीने की इच्छा बनी रही। उन्होंने हमेशा मुझे यही समझाया कि जीवन एक संघर्ष है और उसका सामना हमें हँसते -मुस्कुराते हुए करना चाहिए। उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहुँच कर भी उन्होंने अपनी चंचलता और हंसमुख स्वभाव को नहीं छोड़ा। और हम सबके मन में अपनी वही सरल-सहज  ममतामयी छवि बसा कर वे सदा के लिए ईश्वर में लीन  हो गईं।




कॉमिक्स के दिन

                                




बच्चों  के एक्जाम्स क्या ख़त्म हुए  मानो मेरा सरदर्द शुरू हो गया । मुद्दा वही एक कि आखिर फ्री टाईम  में करें तो क्या करें ? एक के बाद एक फरमाइशों कि लिस्ट  आने लगीं।  मुझे प्ले-स्टेशन कि नई  सीडी चाहिए, मुझे डांस क्लासिस ज्वाइन करनी हैं, मेरे लिए बार्बी की एसेसरीज़ का सेट चाहिए, वगैरह वगैरह। खूब भागम- भाग के बाद भी बच्चे संतुष्ट नहीं होते।  मैं अपने बचपन को याद करने लगी। डिमांड्स हमारी भी हुआ करती थीं ,लेकिन ऐसी नहीं कि जिन्हें पूरा करते करते माँ बाप का मंथली बजट  ही गड़बड़ा जाये। फिर हमारे टाइम पास करने के साधन भी लिमिटिड ही हुआ करते थे। जैसे लूडो, सांप-सीढ़ी , कैरम, दूरदर्शन और सबसे ज्यादा रोचक चीज़ यानि कि कॉमिकस। मझे याद  है कि कैसे मैं और मेरे भाई नई-नई कॉमिक्स पड़ने के लिए पागल से रहते थे। चम्पक, नंदन, चाचा चौधरी, फैंटम ,चंदा मामा, मोटू-पतलू , और भी न जाने  कितने नामों से कॉ मिक्स  आया  करती थीं उस वक़्त। जिन्हे पड़ने में हम इतने खो जाया करते थे कि समय कब कट जाता था पता ही नहीं चलता था। उस वक़्त भी वीडीओ गेम्स थे लेकिन कॉमिक्स हर बच्चे को आसानी से उपलब्ध होने वाली मनोरंजन की  सबसे लोकप्रिय चीज़ थी। बच्चो के अंदर रीडिंग हैबिट को डेवलप करने का ये एक बहुत ही सरल और रोचक  माध्यम हुआ करता था। टीवी पर आने वाले ढेरों कार्टून कैरेक्टर्स  की तरह ही कॉमिक्स के वो पात्र हमारे जीवन का हिस्सा बन जाते थे।. बच्चे उन पात्रों के लिए कितने दीवाने रहते थे।
                                        सच में इस सेटेलाइट चैनल्स और हाई फाई गेम्स के समय में कॉमिक्स का अस्तित्व पूरी तरह ख़त्म सा ही हो गया है। मैं कॉमिक्स के उन पात्रों को बहुत ही मिस करती हूँ, जो उस वक़्त मुझे बिलकुल सच्चे लगते थे। आज मैं बच्चो के लिए किताबें लेने बाज़ार निकलती हूँ तो बुक स्टॉल्स पर केवल कुछ गिनी चुनी ही कॉमिक्स नज़र आतीं हैं।  मनोरंजन के साधन जितने ही बढ़ते जा रहे हैं हमारे बच्चे उतने ही असंतुष्ट होते जा रहे हैं ,शायद बच्चो के अंदर के भोलेपन  को सहेजे रख कर उन्हें स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करने का कॉमिक्स से अच्छा जरिया और कोई हो ही नहीं सकता है।