शुक्रवार, 13 मार्च 2015


मुझे अपार्टमेंट कल्चर कभी भी पसंद नहीं आया ... मुझे फ्लेट्नुमा घर एक पिंजरे की तरह लगते है जहाँ से इंसान प्रकति को देख तो सकता है लेकिन छू नहीं सकता ...मेरे हिसाब से हरेक इंसान को कम से कम इतनी जगह तो मिलनी चाहिए कि वह एक बगीचा बना सके...कुछ पोधे उगा सके ...एक घना छायादार पेड़ जिसके नीचे वो सुकून से बैठ सके .....मिट्टी की गीली गीली खुशबू उसके दिमाग को तारो ताजा रखे .....जहाँ से उसे पक्षियों का चहचहाना ...कोयल का गाना सुनाई दे सके ... जहाँ से वह रोज़ सूर्य को निकलते और डूबते देख सके ...हवा के झोंको के ठन्डे स्पर्श को महसूस कर सके ..जो उसे हर पल प्रेरणा दे सकें ...और उसके थके हुए तन मन में फिर से स्फूर्ति भर सके .....



लेखकों ने , कवियों ने प्रेम को एक बहुत ही अद्भुत रूप में प्रस्तुत किया है ...हमेशा यही कहा गया है कि प्रेम ईश्वर का रूप है ...प्रेम से बढकर संसार में कुछ भी नहीं .. कुछ ने तो ये तक कहा है कि प्रेम कि तुलना में विवाह एक बहुत छोटा शब्द है ....प्रेम बंधन नहीं मानता , सीमाएं नहीं मानता ... यह शरीरों का नहीं आत्माओं का मिलन है ... लेकिन मैंने अपने जीवन में जब भी देखा है तो प्रेम को एक आकर्षण से ज्यादा कुछ नहीं पाया ...प्रेम को सदा मैंने एक भूल भुलैया जैसा पाया ....प्रेम में हम सर्वश्रेष्ठ दिखना चाहते हैं ...सर्वश्रेष्ठ होना चाहते हैं ...प्रेम कल्पनाओ की उड़ान है यहाँ कुछ भी भोतिक नहीं है हम जो नहीं हैं वो होना चाहते हैं सामने वाले कि नज़र से खुद को देखना चाहते हैं ...चाहें उसके लिए हमें स्वयं को बदलना ही क्यूँ न पड़े ... जो एक मुख्य बात मैंने महसूस कि है वह यह है कि प्रेम कभी भी सहज और सरल नहीं हो सकता यदि हमें उसके लिए स्वयं को बदलना पड़े ... हम जैसे हैं यदि वैसे ही सामने वाला हमें स्वीकार करना चाहे तो वह प्रेम है .. और यदि हमें थोडा भी आवरण  पड़े या खुद को बदलना पड़े तो फिर वह प्रेम नहीं हो सकता ....
विवाह की  यही बात मुझे प्रभावित करती है कि यह व्यक्ति को वो होने कि स्वतंत्रता देता है जो वह है ..... जो वह होना चाहे... मैंने बहुत से प्रेमी जोड़ो को देखा जो विवाहित भी थे और विवाह नहीं भी कर पाए ... तो पाया कि वे उन जोड़ो से किसी भी रूप में भिन्न नहीं थे जिनका विवाह घर वालों की मर्जी से हुआ था ...प्रेम को मैंने जितना भी समझा है वह एक म्रग्मारीचिका से ज्यादा कुछ नहीं लगी जो जब तक हमसे दूर रहती है हमें लुभाती है लेकिन उसे प्राप्त कर लेने पर उसका आकर्षण स्वत: ही ख़त्म हो जाता है ... जबकि एक सफल विवाह में हम शुरू से ही इस सत्य को स्वीकार करके चलते है कि जो जैसा है हमे वैसा ही स्वीकार है और यदि ऐसा नहीं है तो फिर विवाह भी असफल हो जाता है ...एक सफल दाम्पत्य जीवन के लिए आवश्यक है कि त्रुटियों और कमियों को भली भांति स्वीकार किया जाये ...और यदि एक बार ऐसा होता है तो फिर जिंदगी एक खुशनुमा  सफर बन जाती है और हमसफ़र का साथ आपकी सबसे बड़ी ताकत। 

वह बहुत तेज़ी से ऑल इंडिया मेडिकल की सीडियां चढ़ रही थी ...उसकी गोद में उसका 7 -8 साल का बेटा  था ... उसका पल्लू पकड़े हुए पीछे पीछे उसकी 5 साल कि बेटी चल रही थी ...जो किसी भी सूरत में अपनी माँ से अलग नहीं रहना चाहती थी ...यह पहली बार नहीं था जब ये लोग देश के इस जाने माने अस्पताल में आए थे ...हर छह महीने बाद इन लोगो को यहाँ आना होता था ... २ साल कि उम्र में बुखार आने पर उसके बेटे के पैर में पोलिओ हो गया था ...अपने स्वस्थ बच्चे को अचानक अपंग होते देख कर कौन सी माँ अपना धेर्य नहीं खोएगी ....उस पर भी घरवालों का ये ताना कि उसकी ही लापरवाही से ये सब हुआ है ...काफी इलाज के बावजूद भी जब बच्चे के पैर में कोई सुधार नहीं हुआ तो बच्चे को दिल्ली ले जाकर इलाज करने का निर्णय लिया गया ...वहां अस्पताल में जब वह पोलियो से ग्रस्त अन्य बच्चों को देखती तो उसका दिल रो पड़ता ...उसे लगता कहीं उसका बेटा जीवन भर के लिए अपंग न हो जाये ...बच्चे का एक पैर अपनी चलने की शक्ति खो चुका था ...वह भगवान से प्रार्थना करती, ‘ हे ईश्वर , आप मेरे पैरों कि शक्ति मेरे बेटे के पैरों में डाल दो , चाहों तो मुझे अपंग कर दो लेकिन मेरे बेटे को पूरी तरह स्वस्थ कर दो ‘....वह यूँही बार बार बार बच्चे को लेकर दिल्ली आती और डॉक्टरों से उसका चेकअप कराती ...डोक्टरों ने सुझाव दिया कि सही खानपान , मालिश और चमड़े के बने हुए खांचे में पैर को रख कर चलने से शायद कुछ फर्क आ जाये ...बस वह बच्चे की देख रेख में जुट गई ...वह दिन रात बच्चे का ख्याल रखती और भगवान से उसके ठीक होने की प्रार्थना करती .... यूँ तो उसके दो बड़े बेटे और एक छोटी बेटी भी थी लेकिन उसका ध्यान पूरी तरह उस बीमार बच्चे में ही लगा रहता ... अन्य बच्चे दादा –दादी कि देख रेख में रहते ...धीरे धीरे बच्चा बड़ा होने लगा और उसके पैर में सुधार आने लगा ...वह फिर भी संतुष्ट नहीं थी ...वह अपने बेटे को पूरी तरह ठीक करना चाहती थी ...वह उसे सामान्य बच्चों की तरह दौड़ते – भागते देखना चाहती थी ....तब किसी ने उन्हें बताया कि तमिलनाडु के कोयाम्बत्टूर शहरमें एक जगह है जहाँ इस बीमारी का इलाज किया जाता है ...वह अपने पति और बेटे को लेकर वहां चली गई ...वह एक बड़ा आयुर्वेदिक चिकित्सालय था जहाँ विशेष प्रकार की आयुर्वेदिक दवाइयों और तेलों की  मालिश से उस बच्चे का इलाज किया जाता था ...वह अपने बेटे को लेकर कई बार वहां गई ...आखिरकार भगवन ने उसकी प्रार्थना सुनी अब बच्चा ठीक से चलने फिरने लगा था ... हालाँकि उसके पैर में अभी थोड़ी कमजोरी रह गई थी ...लेकिन अब वह बिना किसी मदद के स्कूल जाने लगा था ...वह अब बहुत खुश थी ....आखिरकार उसकी मेहनत रंग लाई थी ....समय का चक्र चलता जा रहा था बेटा अब 14 -15 वर्ष का हो गया था .....वह हमेशा की तरह घर के सदस्यों कि देखभाल करती रहती थी ... सास ससुर की  देखभाल , पति का और बच्चो का ख्याल रखना यही उसका जीवन था ...लेकिन ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था ...उसने ईश्वर से अपने बेटे के ठीक होने के बदले जो माँगा था वही हुआ ...एक रात अचानक जब वह सो रही थी और नींद खुलने पर जब उसने अपने पैरों पर खड़ा होने चाहा तो उसका बायां पैर अचानक लड़खड़ा गया ...सहारा लेने के लिए जैसे ही उसने अपना बायाँ हाथ बढाया तो उसने पाया कि वह भी अशक्त हो चुका था ...उसके शरीर का बायां भाग लकवे का शिकार हो गया था ...वह सदा के लिए अपंग हो गई थी ....लेकिन उसे ईश्वर से कोई शिकायत नहीं थी वह खुश थी क्यूंकि उसका बेटा अब अपने पैरों पर चलने लगा था ... दौड़ने भागने लगा था ...उसकी तपस्या का फल उसको मिल गया था ...वह केवल एक माँ थी और कुछ भी नहीं ....

आज बहुत दिन बाद ब्लोगर पर जाकर अपना ब्लॉग खोला ..बिलकुल वैसा ही लगा जैसे किसी पुराने दोस्त से मिलने के बाद लगता है ..या जैसे कोई लड़की ससुराल से अपने मायके पहुँचने पर महसूस करती है ... असल में पहले हम सीधा ब्लॉगर पर ही लिखते थे , तब हमारे लैपटॉप पर हिंदी फॉण्ट नहीं था ... अब इस नए लैपटॉप पर गूगल इनपुट टूल मिल गया है तो बिना इंटरनेट कनेक्शन के भी सीधा वर्ड पर धराधड लिखते चले जाओ और जब फुर्सत मिले तो उसे ब्लोगर पर पोस्ट कर दो .....लेकिन इसके बावजूद भी लिखना नियमित रूप से नहीं हो पा रहा है ...व्यस्तता ही इतनी रहती है ....कितनी अजीब सी बात है न कि जो काम हमें सबसे अच्छा लगता है उसी के लिए आप को वक़्त नहीं मिल पता है और जो काम आपको बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता जैसे घर संभालना , खाना पकाना , वगेरह वगेरह , उसको आप को रोज ही करना पड़ता है ...खैर जी तो करता है अपने दिल्ली के वर्किंग डेज वाले दिनों कि तरह एक कमरा किराये पर ले लिया जाये जिसमें ज्यादा सामान न हो ...और खाने के लिए दोनों टाइम का डब्बा लगा लिए जाये ...बाकि का बचा हुआ सारा वक़्त लिखने पढने में लगा दिया जाये ...सुबह कितना भी जल्दी उठ जायें और रात को कितना भी देर से सोये लेकिन अपने लिए एक घंटा नहीं निकाल पाते ...पता नहीं वो कैसे लोग होते हैं जो दोपहर भर बिस्तर पर पड़े पड़े ऊँघते रहते हैं ....मुझे तो अगर थोडी भी फुर्सत मिल जाये तो जाने क्या क्या कर लूं ....दिल ही दिल में बहुत सारे प्लान बनाये फिर करते हैं लेकिन फुर्सत मिलती ही नहीं ....शायद मेरा टाइम मेनेजमेंट बहुत ख़राब है ....जो भी है एक बार फिर कोशिश करेंगे अपनी उलझी हुई जिन्दगी को कुछ सुलझाने की और अपने लिए थोड़ा वक़्त निकलने की .....