शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

मिर्ज़ा ग़ालिब की 216 वीं सालगिरह पर


Mirza Ghalib 212 Birthday

  1. "हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे ,कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए-बयां औऱ !"

यूँ ही लोकल अख़बार के पन्ने पलटते हुए पढ़ा कि मेरे घर के पीछे की गली में स्थित ग़ालिब की हवेली यानि इंद्रभान गर्ल्स इंटर कॉलेज में मिर्ज़ा ग़ालिब की स्मृति में एक कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। और फिर पता चला कि चचा तो अपने पडोसी निकले। हमारी नज़रों में उनसे बढ़  कर कोई लिखने वाला नहीं और हमसे बढ़ कर कोई पढ़ने वाला नहीं। मैं लगभग उछल पड़ी ,मिर्ज़ा ग़ालिब मेरे पीछे कि गली में? और मैं दुनियाभर कि किताबों में उनको ढूंढ़ती फिर रही थी । कॉलेज के ज़माने में कैसेटों और किताबों में ,और अब पूरा गूगल छान मारा है कि मरने से पहले ग़ालिब कि कोई भी नज़्म बिना पढ़े न रह जाये। वो ठहरे शायरी के देवता और हम पुजारी।  हार्डकोर फेन कसम से। 
   तो थोडा बहुत रिसर्च करने पर पता चला कि इनका मूल निवास आगरा ही था , मेरा घर यानि कि बेलनगंज के पीछे एक पुराना मोहल्ला है- काला महल ,वहीँ पर एक मकान  हुआ करता था जो अब एक कन्या विद्यालय में बदल दिया गया है। तो मियां मिर्ज़ा ग़ालिब यानि नज़्म-उद -दुल्लाह मिर्ज़ा असदुल्लाह बैग़ खां का जन्म इसी हवेली में हुआ था। उनका जीवनकल 27 दिसम्बर 1797 से 15 फ़रवरी 1869  तक रहा। ये वो वक़्त था जब मुगलों का शासनकाल अपने पतन पर था और ब्रिटिशों ने हिंदुस्तान में अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी थी। जब वे ५ वर्ष के थे तो उनके पिता अलवर के युद्ध में मारे गए थे। उनका पालन-पोषण उनके चचा मिर्ज़ा नसरुल्लाह बैग खां ने किया था। उन्होंने ११ वर्ष कि उम्र में लिखना शुरू किया। १३ साल कि उम्र में उनका निकाह उमराव  बेगम से हुआ था। जिनसे उनके सात संताने हुई लेकिन दुर्भाग्यवश एक भी जीवित नहीं बची।  
उन्होंने अपने जीवन काल में बहुत सी ग़ज़लें ऑर नज़में  लिखी जिन्हें बहुत से अलग -अलग लोगो ने अलग-अलग अंदाज में प्रस्तुत किया। मुग़ल दरबार में वे अपनी शायरी के लिए मशहूर थे। ग़ालिब को न केवल भारत और पाकिस्तान में बल्कि दुनिया के बहुत से उर्दू पढ़े जाने  वाले मुल्कों में उर्दू का सर्वोच्च शायर माना  जाता है। उनकी शायरी ज्यादातर जिंदगी के रंजोग़म  का आईना थीं , लेकिन उनमें  प्रेम, अध्यात्म और दर्शन का भी मिला जुला रूप देखने को मिलता है। वे उर्दू, फ़ारसी और तुर्की भाषाओँ पर सामान अधिकार रखते थे लेकिन उनकी रचनाएं सिर्फ उर्दू में ही देखने को मिलती हैं। ग़ालिब को उर्दू का पहला दानीश्वर शायर कहा जाता है। दीवान-ए -ग़ालिब  को आज भी उर्दू शायरी में एक खास स्थान प्राप्त है।  
Mirza Ghalib Picture
Mirza Ghalib







सोमवार, 9 दिसंबर 2013

ये पता नहीं मौसम का असर होता है या आपके अपने  ही दिमाग में होने वाले साइकोलॉजिकल प्लस बाईलॉजिकल चेंजस  का असर , जिससे आपकी दिनचर्या प्रभावित होती रहती है। कभी बहुत नींद आती है बेहिसाब, इतनी कि रात में पूरी नींद ले लेने के बावजूद भी दिन भर सोये रहने का मन करता है | और कभी ऐसा भी होता है की नींद आपसे कोसो दूर भाग जाती है । ऐसा लगता है कि सुबह जल्दी उठ कर अपने सारे काम निपटा लिया जायें । सोना तो जैसे टाइम की बर्बादी लगता है। कभी सबसे बात करने का दिल करता है और कभी किसी से भी नहीं। और कभी -कभी तो ऐसा लगता है जैसे आप एक ऐसे शहर में हैं जहाँ कोई और जबान बोली जाती है। आप किसी से बात करेंगे तब भी कोई आप  की बात नहीं समझ नहीं पाएगा। ये एकाकीपन क्या मेरे ही साथ होता है या सभी इसका अनुभव करते हैं। समझ नहीं आता कि क्या है ये खालीपन सा जो भीड़ में जाने के बाद और बढ़ जाता है। 

ख्वाहिशों का राशिफल

वक़्त के साथ-साथ इंसान का जीवन के प्रति नजरिया भी बदलता रहता है। इंसान की उम्र और उसका अनुभव उसकी सोच पर निश्चित रूप से असर दिखाता है। उदाहरण के लिए जब हम टीनएज  या यंगस्टर होते हैं तो अपने डेली होरोस्कोप में लव और रोमांस वाले सेक्शन को सबसे पहले पढ़ते हैं और उसे ही जानने को सबसे ज्यादा उत्सुक रहते हैं। उसके बाद थोड़ा  परिपक्व होने पर वैवाहिक जीवन और कॅरिअर सम्बन्धी सेक्शन पर ध्यान देने लगते हैं। थोड़ी और उम्र बढ़ने पर हम बच्चे ,घर, सामाजिक  और सांसारिक कार्यकलापों से जुड़े सेक्शन को टटोलने लगते हैं। देखतें हैं कि समाज के दृष्टिकोण से सफल  कहलाने के लिए जो भी चीज़ें जरूरी है वो हमें मिलेंगी या नहीं? जैसे जीवन की उपलब्धियां, घर में सुख-शांति ,यश-सम्मान, सांसारिक वस्तुएं आदि। हमारी उम्र के साथ-साथ हमारी खुशियों और सफलता के पैमाने भी बदले रहते हैं। जीवन निश्चित रूप से परिवर्तनशील है और हमारी विचारधारा भी। या तो यूँ कहिये कि इस प्रगतिशील जीवन में हम जो पा लेते हैं उसके बारे में सोचना छोड़ देते हैं। और जो हमें पाना है उसके बारे में सोचते रहते है। उम्र के अंतिम पड़ाव तक हम कुछ न कुछ पाने को बैचैन रहते है और अपने डेली होरोस्कोप के जरिये जीवन में खोने-पाने का लेखा जोखा तैयार करते रहते हैं। पर हम ये भूल जाते हैं कि इस दुनिया में सबको सबकुछ नहीं मिलता।
दूर से देखने पर जो चीज़ें हमें अच्छी लगती हैं पास जाने पर पता चलता है कि उनकी वास्तविकता ही कुछ और है। इस दुनिया में किसी के पास पैसा है और परिवार नहीं, परिवार है तो प्यार नहीं ,और प्यार है तो स्वास्थ्य नहीं । ऊपर वाले ने हम में से हर एक की  जिंदगी में कुछ न कुछ कमी दी है। सर्वगुणसम्पन्न यहाँ कोई भी नहीं। तो जरूरत यह है कि जो हमारे पास है उसकी कीमत समझी जाये और जो नहीं है उसको पाने का प्रयास करते रहें। जो आपके भाग्य में है वो आपको खुदबखुद  मिल ही जायेगा और जो खुशियां आपके हिस्से में नहीं आने वाली हैं वो लाख कोशिशों के बावजूद भी नहीं मिलेंगी। तो फिर फ़िक्र किस बात की।
रोबिन शर्मा की  किताब 'द मोंक हू सोल्ड हिज़ फरारी' जीवन की  इसी बात की  तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करती है कि सब कुछ पाकर भी कुछ पाने कि तलाश ताउम्र ज़ारी रहती है। और अक्सर ऐसा होता है कि  कुछ पाने कि दौड़ में कुछ ऐसा पीछे छूट जाता है जिसकी भरपाई करना मुश्किल होता है।
इस किताब में एक ऐसे आदमी का ज़िक्र है जिसके पास पैसा, पावर, सफलता सबकुछ होता है लेकिन फिर अचानक एक दिन हार्टअटैक आने पर वह खुद को मौत के बहुत करीब पाता है। और उसे अहसास होता है कि सफलता और उपलब्धियों को पाने कि दौड़  में उसने जीवन का बहुत बड़ा भाग यूँ ही व्यर्थ कर दिया।
उसने पैसा तो कमाया लेकिन उस पैसे से उसे ख़ुशी नहीं मिली उल्टा उसने अपनी सेहत गँवा दी और वक़्त से पहले ही खुद को मौत के सामने खड़ा पाया। और फिर एक दिन वो अपना सब कुछ छोड़ कर हिमालय की श्रंखलाओं में फिर से एक नए जीवन कि खोज में निकल पड़ता है।
 तो कहानी का सार यही है कि जीवन की  उपलब्धि उसे सही प्रकार से जीने में है लेकिन जीवन जीने की  कला को जान लेना हर किसी के बस कि बात नही  है। वो तो विरले ही होते हैं जो इस सत्य को समझें हैं कि जीवन का उद्देश्य आखिर है क्या? सारी  जद्दोजहद के बाद अगर आप अंदर से खुश हैं तो सब ठीक है वर्ना सब कुछ बेकार है क्योंकि खुश रहने के लिए सबकुछ होना जरूरी नहीं होता यह तो  हमारे सोचने पर निर्भर करता है | कभी हमारे पास कुछ नहीं होता फिर भी हम बेहद खुश होते हैं और कभी सब कुछ मिल जाने पर भी कहीं कुछ कमीं लगती है। लेकिन शायद इसी का नाम  जिंदगी है।

मंगलवार, 17 सितंबर 2013


सचमुच रंगमंच ही तो है जीवन, मैं देख रही हूँ शांत भाव से। पता नहीं कहाँ खोयी हुई सी। तुमने ढेरों अपेक्षाएं डाली हुयी हैं मुझ पर। और मैं कुछ भी कर पाने में असमर्थ। फिजिकली प्रेजेंट एंड मेंटली एब्सेन्ट । पर क्यों , जीवन जैसा है हम खुद वैसे ही क्यों नहीं हो जाते। बड़ी मुश्किल होती है सामंजस्य बैठाने में । तुम अक्सर कहते हो सामंजस्य बिठाओ पर मैं तुम्हें कैसे बताऊँ मैं असमर्थ हूँ ऐसा कर पाने में । तुम बाहर की दुनिया से हाथ बड़ा कर खींचना चाहते हो मुझे वहां ,पर मैं तुम्हें क्या बताऊँ मैं किस कदर उलझी हुई  हूँ  अपने अन्दर की दुनिया में ।ढेरों काम हैं मुझे अभी वहां पर। बहुत शोर भी है। कैसे समझाऊँ तुम्हें अतीत के कितने हिसाब लगाने हैं । क्या खोया क्या पाया गुना भाग सब करना है अभी। और तुम खींच रहे हो मुझे वहां से । तुम ही बताओ दो नावों में पैर कैसे रखूँ मैं । इधर जाऊं या उधर जाऊं । कुछ समझ नहीं आता । सब कुछ फैला बिखरा सा है। टूटे सपनो के कितने टुकड़े  हैं जो साफ करने हैं । कितनी यादें है जिन्हें सलीके से लगाना  है एक तरफ दिमाग में , थोडा पीछे की तरफ़। कोशिश करती हूँ कि निकल जायें पूरी तरह दिमाग से ,लेकिन निकलती ही नहीं, नागफनी के पौधे की तरह बढ़ती ही जातीं  है। अन्दर ही अन्दर चुभती है। बहुत मुश्किल हैं इन यादों को लेकर जीना । थोडा वक़्त दो मुझे इन्हें हटा दूं फिर तुम्हारे सारे काम कर दूंगी। वो जरूरी डाक्यूमेंट्स जो मैं रख कर भूल गयीं हूँ शायद वो भी मिल जायेंगे ,तुम्हारा सारा जरूरी सामान जो मैं ठीक से नहीं रख पाती  हूँ ,वो भी संभाल पाऊँ।  पर अभी थोडा समय लगेगा मुझे अपने ख्यालों और वास्तविकता की दुनियां में तालमेल बिठाने में । निकलना खुद मैं भी चाहती हूँ इस भटकाव से लेकिन क्या करूं  निकल नहीं पा रही । कोशिश करती हूँ तुम्हारी अपेक्षाओं  पर खरी उतरने की, तुम्ही बताओ  क्या मैं फेल हो गयी हूँ जिन्दगी के इम्तिहान में । क्या मैं तुम्हारी उम्मीदों को पूरा नहीं कर पाऊँगी । बस ये जो शोर सा है वो थम जाये फिर सब कर पाऊंगी जो तुम चाहते हो , जिम्मेदारियां संभालना, कर्तव्यों को निभाना, वगेरह ,वगेरह। सच मैं खुद चाहती हूँ , कि  यादो की इस आपाधापी से बाहर आऊं ,भविष्य को कोरे कैनवास  की तरह नए रंगों से सजाऊं  पर हो नहीं पाता । ये कुछ काले सफ़ेद से रंग हैं जो फ़ैल गए हैं मन की किताब पर, बहुत गहरे दाग है छूटते ही नहीं । 

गुरुवार, 8 अगस्त 2013

Ab Ke Baras Bhej Bhaiya Ko Babul Asha Bhosle Film Bandini Music SD Burma...

आज हरियाली तीज है। बाहर मूसलाधार बारिश हो रही है।  सुबह सोचा कि क्लास न लूं, लेकिन कुछ स्टूडेंट्स आ गए  तो मन न होते हुए भी क्लास ली। उसके बाद चाय का कप लेकर मैंने लैपटॉप पर अपना एक बहुत ही पसंदीदा गाना लगाया। बाबुल मोरा ……   नैहर छूटो ही जाये…. , जगजीत और चित्रा  की आवाज में ये गीत सुनकर जैसे दिल में एक दर्द सा उठा । ऐसा लगा कि  जैसे कोई पुराना जख्म ताजा हो गया हो। हरियाली तीज के मौके पर किसी लड़की को अपने मायके की  याद न आये ऐसा कैसे हो सकता है। ऐसे मौकों पर मैं अक्सर भावुक हो जाती हूँ। बहुत खूबसूरत बचपन था मेरा । बिलकुल किसी राजकुमारी जैसा । लेकिन फिर भी मैं अपने बचपन की यादों से अक्सर नज़रे चुराती हूँ क्योंकि मेरे बचपन की यादों में सबसे ज्यादा प्यारी याद  भैया की है, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं । तो ऐसे मौकों पर मेरा मूड कुछ ख़राब होना स्वाभविक है। फिर भी जीवन है ,जो चलता रहता है। मौकों और माहौल से यूँ भी मेरे मिजाज़ का तालमेल कम ही बैठता है। मौके ,मौसम, माहौल और मिजाज़ अक्सर कुछेक पुराने सुने हुए गीतों  की याद  दिलाते हैं । सावन के ऐसे ही गीतों में एक और बेहद खूबसूरत गाना है- "अब के बरस भेज भैया को बाबुल, सावन में लीजो बुलाय रे"। नूतन पर फिल्माया, बंदिनी फिल्म का गाना। जो मेरे चाचाजी हारमोनियम पर गाया करते थे। मैं कभी भी इस गाने को बिना रोए पूरा नहीं सुन पाई, "मैं तो बाबुल तेरे अंगना की चिरिया ,फिर क्यों हुई  मैं परायी"……… ।   किसी बेटी के दिल में उसके मायके की यादो को दर्शाने  के लिए इस गाने से सुन्दर और  कोई उदाहरण नहीं है। यूँ  तो मैं अक्सर अपने मायके चली जाती हूँ, लेकिन माँ-बाप से दूर रहकर उनके लिए कुछ न कर पाने की पीड़ा हर बेटी के दिल को सताती है ,जो समाज द्वारा निर्मित परम्पराओं की देन है। खैर जो भी हो , बाहर मौसम बहुत खूबसूरत  है और आज मिजाज़ भी अच्छा है, तो क्यों न हरियाली तीज के इस अवसर का पूरा -पूरा लुत्फ़ उठाया जाये। तो फिर चलिये , मेहरून बोर्डर की गहरे हरे रंग की साड़ी  पहन कर पतिदेव को सरप्राइज़ किया जाये। मेहँदी का भी प्रोग्राम है। और शाम को मम्मी के यहाँ जाना तो बनता ही है।

आज हरियाली तीज है। बाहर मूसलाधार बारिश हो रही है।  सुबह सोचा कि क्लास न लूं, लेकिन कुछ स्टूडेंट्स आ गए  तो मन न होते हुए भी क्लास ली। उसके बाद चाय का कप लेकर मैंने लैपटॉप पर अपना एक बहुत ही पसंदीदा गाना लगाया। बाबुल मोरा ……   नैहर छूटो ही जाये…. , जगजीत और चित्रा  की आवाज में ये गीत सुनकर जैसे दिल में एक दर्द सा उठा । ऐसा लगा कि  जैसे कोई पुराना जख्म ताजा हो गया हो। हरियाली तीज के मौके पर किसी लड़की को अपने मायके की  याद न आये ऐसा कैसे हो सकता है। ऐसे मौकों पर मैं अक्सर भावुक हो जाती हूँ। बहुत खूबसूरत बचपन था मेरा । बिलकुल किसी राजकुमारी जैसा । लेकिन फिर भी मैं अपने बचपन की यादों से अक्सर नज़रे चुराती हूँ क्योंकि मेरे बचपन की यादों में सबसे ज्यादा प्यारी याद  भैया की है, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं । तो ऐसे मौकों पर मेरा मूड कुछ ख़राब होना स्वाभविक है। फिर भी जीवन है ,जो चलता रहता है। मौकों और माहौल से यूँ भी मेरे मिजाज़ का तालमेल कम ही बैठता है। मौके ,मौसम, माहौल और मिजाज़ अक्सर कुछेक पुराने सुने हुए गीतों  की याद  दिलाते हैं । सावन के ऐसे ही गीतों में एक और बेहद खूबसूरत गाना है- "अब के बरस भेज भैया को बाबुल, सावन में लीजो बुलाय रे"। नूतन पर फिल्माया, बंदिनी फिल्म का गाना। जो मेरे चाचाजी हारमोनियम पर गाया करते थे। मैं कभी भी इस गाने को बिना रोए पूरा नहीं सुन पाई, "मैं तो बाबुल तेरे अंगना की चिरिया ,फिर क्यों हुई  मैं परायी"……… ।   किसी बेटी के दिल में उसके मायके की यादो को दर्शाने  के लिए इस गाने से सुन्दर और  कोई उदाहरण नहीं है। यूँ  तो मैं अक्सर अपने मायके चली जाती हूँ, लेकिन माँ-बाप से दूर रहकर उनके लिए कुछ न कर पाने की पीड़ा हर बेटी के दिल को सताती है ,जो समाज द्वारा निर्मित परम्पराओं की देन है। खैर जो भी हो , बाहर मौसम बहुत खूबसूरत  है और आज मिजाज़ भी अच्छा है, तो क्यों न हरियाली तीज के इस अवसर का पूरा -पूरा लुत्फ़ उठाया जाये। तो फिर चलिये , मेहरून बोर्डर की गहरे हरे रंग की साड़ी  पहन कर पतिदेव को सरप्राइज़ किया जाये। मेहँदी का भी प्रोग्राम है। और शाम को मम्मी के यहाँ जाना तो बनता ही है।

सोमवार, 8 जुलाई 2013

"दिल ढूँढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन…."

           गर्मी की छुट्टियाँ खत्म , फिर से जिन्दगी अपने उसी पुराने ढर्रे पर चल पड़ी है। खूब सोये, फिल्में देखीं, किताबें पढी , घूमे फिरे और मज़ा किया । पर हमेशा तो ये सब नहीं चल सकता है न। तो फिर शुरू हो गया काम का सिलसिला।। सुबह जल्दी उठ कर बच्चों को स्कूल भेजना, पति को ऑफिस और खुद भी अपनी  क्लास के लिए तैयार होना।  काम निबटाते -निबटाते रात के 12  बजेंगे और थकावट से चूर आप कब सो जायेंगे पता ही नहीं चलेगा | और इसी तरह हमारी जिन्दगी का और एक दिन गुज़र गया । पर जनाब इसी का नाम तो है जिन्दगी | आराम के लिए वो एक सन्डे भी तो मिलता है। तो उस दिन सोचते हैं कि घर और बाहर के सारे पेंडिंग काम निपटा लिए जायें । तो सन्डे तो आने वाले हफ्ते की सारी तैयारियों में ही निकल जाता है।
      लेकिन मेरे लिए फुर्सत का मतलब ढेर सारा आराम करना नहीं है। छुट्टियाँ या फुर्सत मेरे लिए वो कीमती और बहुत मुश्किल से मिलने वाला वक़्त है जो मैं अपने और अपने परिवार के साथ गुज़ारना चाहती हूँ । सैर सपाटा करते हुए नहीं और ना हीं फिल्म देखते हुए और ना ही बाहर किसी अच्छे रेस्तरां में खाना खाते हुये। बल्कि वो खाली वक़्त जब हम थोडा थमें, रुकें और सोचें कि  हम आखिर कहाँ जा रहे हैं । हम घर चलाने के लिए कमाते हैं, बच्चे अपने बेहतर भविष्य की तैयारी के लिए पढ़ाई करने में लगे हुए हैं । लेकिन इन सब के बीच जो धीरे -धीरे ख़ामोशी से खिसक रहा है. वो हमारा आज, मेरे लिए वही फुर्सत, वही वक़्त बेहद जरूरी चीज़ है। वही तो है जिन्दगी, जो दस-दस साल के अन्तराल में बदली हुई सी लगती है | पता नहीं चलता कैसे रेंग कर गुज़र जाती है हमारी पहुँच से बहुत दूर। और हम कहते हैं कि पता नहीं चला बच्चे कब बड़े हो गए, वक्त  कैसे गुज़र गया ।
      तो जब भी मुझे फुर्सत के पल मिलते हैं तो मैं चाहती हूँ कि परिवार के साथ रहूँ, खुद को वक्त दूं, और वो सब करूं जो मैं अब इसी आज में करना चाहती थी। चाहें फिर उनके साथ बैठ कर उनके स्कूल की शैतानियों भरे किस्से सुनना ही क्यों न हो और या फिर उनकी कभी न ख़त्म होने वाली फरमाइशों की लिस्ट जानना ।
 हम सब हमेशा अपने ही कामों में लगे रहते हैं, देखा जाये तो हम अपने जीवन का आधे से ज्यादा समय सोने में, दैनिक कार्यों में ,पढाई करने में और नौकरी या बिज़निस में ही निकल देते हैं । रहा सहा आधा समय मित्रों, रिश्तेदारों, सगेसम्बंधियों और भी बहुत से सोशल ओब्लिगेशन्स को निबटाने में निकल जाता  हैं। परिवार का नंबर आते-आते इतनी देर हो जाती है कि सुनने को मिल ही जाता है ' आपके पास टाइम है ही कहाँ?' मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो हमेशा टाइम न होने का रोना रोते रहते हैं ।  टाइम मैनेजमेंट  तो एक ऐसी कला है जो कॉर्पोरेट ट्रेनर नहीं बल्कि खुद समय और आवश्यकता ही हमें सिखा देती है | लेकिन मेरी यही कोशिश है कि बिज़ी और खाली समय के बीच एक संतुलन बना रहे। और शायद मेनेजमेंट की भाषा में उसी को कहते हैं वर्क- लाइफ- बेलेंस | क्योंकि कहा जाता कि हमारे जीवन के लिए काम करना जितना जरूरी है ,खाली रहना भी उतना ही जरूरी है । क्योंकि व्यक्ति रचनात्मक तभी हो  सकता है जब उसके पास ढेर सारा समय हो। विचारों के पनपने और उनके संयोजन में खाली समय का बहुत योगदान होता है। इस बात पर एक पुराने गीत की लाइनें याद आ रही हैं "दिल ढूँढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन…."

बुधवार, 12 जून 2013


हम कितने भी पढ़े लिखे और आधुनिक क्यों न हो जायें,  अन्दर से हम सब कहीं न कहीं अपनी जड़ों से जुड़े हुए रहते है। बचपन से हम अपने बड़ो को जिन विश्वासों और मान्यताओं के साथ जीते देखते आये हैं, धीरे-धीरे हम भी उन्हीं विश्वासों के साथ जीने लगते हैं । पता नहीं चलता कब ये विश्वास हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग बन जाते हैं । कुछ मान्यताएं तो हमारी जीवनशैली में कुछ इस कदर  शामिल हो जाती हैं कि उन्हें अपने जीवन से अलग करना हमारे लिए असंभव सा हो जाता है। ये विश्वास चाहें धर्म से जुड़े हो या वास्तुशास्त्र  से और या फिर हमें पीढ़ी  दर पीढ़ी बताए गए  हैं लेकिन इनका मूल उद्भव कहाँ से हुआ है ये कोई नहीं बता पाता । लेकिन हम सब फिर भी आंख बंद कर के इन पर विश्वास करते रहते हैं ।
 बिल्ली का रास्ता काटना, छींकना ,आंख का फड़कना, दूध का उफन जाना, हिचकी आना  और भी जाने कितनी बातें हैं जो हम बचपन से ही मानते चले आ रहे हैं । हम सभी अपने भविष्य को लेकर चिंतित रहते हैं, लेकिन किसी नियत समय पर किसी घटना का घटित होना क्या हमें संकेत दे सकता है कि हमारे साथ अच्छा  होने जा रहा है या बुरा ।                                                                                                                      शंकाओं से भरे रहना मानव मन का स्वभाव है लेकिन हमारे दैनिक जीवन से जुडी इन छोटी छोटी बातों  से हम और भी चिंतित हो उठते है। शगुन  अपशगुन तो हम सभी मानते हैं लेकिन क्या सच में  अच्छे और बुरे शगुन हमें भविष्य के बारे में आगाह करने के लिए होते है। कहीं कहीं तो ये भी कहा जाता है कि चप्पल के उलटे हो जाने से या कैंची बजने से घर में झगड़ा हो सकता है, या कौए के छत पर बोलने से या बर्तन के गिरने से घर में मेहमान आते हैं । इसी तरह माना जाता हैं कि मंगलवार और ब्रहस्पतिवार के दिन डॉक्टर के नहीं जाना चाहिये या कोई शुभ कार्य नहीं करना चाहिये ।
 इसी तरह बुरी नज़र को लेकर हमारे समाज में ही नहीं पूरे संसार में विचार बने हुए हैं कि ये न सिर्फ मनुष्य के स्वास्थ और प्रगति पर अपना असर दिखाती हैं बल्कि जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित करती है। यहाँ तक कि पश्चिमी देशों में लोग ईविल आई के चिन्हों वाली वस्तुओं को पहने रहते हैं । आज जब विज्ञानं ने इतनी प्रगति कर ली है फिर भी लोगों का ये विश्वास बदला नहीं है कि किसी  की नज़र लग जाने से किसी का अहित हो सकता है। यहाँ तक कि फिल्म स्टार और बड़े -बड़े सेलेब्रिटी भी नज़र से बचने के उपाय करते रहते हैं ।
इन सब बातों  का भले ही कोई वैज्ञानिक आधार न हो लेकिन फिर भी विश्वास बहुत बड़ी चीज़ है। किसी भी विचार या मान्यता को सदियों तक दोहराये जाने पर हमारा मन उस पर विश्वास करने को मजबूर हो ही जाता है। फिर कहते हैं न कि  ईश्वर को किसने देखा है ? वो भी तो एक विश्वास ही है। 

शनिवार, 25 मई 2013


ये फुर्सत भरे दिन,  आओ तुम्हें बता दूं कि क्या खज़ाना भरा हुआ है तुम्हारे अन्दर  , थोड़ी देर रुको तो सही, ठहरो, फिर वक़्त मिले न मिले, तुमसे बहुत कुछ सीखना बाकी  है, तुम जाओ उससे पहले तुम्हें आखिरी विदा तो दे दूं , क्योंकि कभी तुम्हारे जाने के बाद मैं अपनी नाखून से ज़मीन  को खरोचते हुये ,या तकिये में मुंह छुपा कर , ये मांगूं की काश तुम वापिस लौट आओ। "
आखिर गर्मियों  का वो वक़्त आ ही गया जब बोरियत और आलस्य अपने चरम पर है।  ये बारिश का वो सुहाना मौसम भी नहीं है कि  जब बच्चे “let’s do something crafty" करके अपना समय बिताते है।ये मौसम जब आता है तो अपने साथ एक अजीब सा खालीपन भी ले आता  है, वक़्त मानो काटे ही नहीं कटता  और कुछ भी करने का मन नहीं करता है। घर के दरवाज़े का बार-बार खुलना और बंद होना भी नहीं हो रहा है। ना ही  बार-बार डोरबेल परेशान  कर रही है। दोपहर में घर से बाहर निकलना मानो जैसे जंग पर जाने की तैयारी हो।  और घर मैं रहना उस से भी ज्यादा खतरनाक |
ऐसे में बच्चे या तो टीवी से चिपके रहते हैं या फिर फ्रीज़र में रखी हुई  आइसक्रीम के आखिरी स्कूप के लिए लड़ाई करते है। ऊपर से उनका शिकायतें करते हुए मेरे पास आना  पता नहीं उन्हें क्यूँ लगता है कि उनकी सारी  परेशानियों का हल मेरे ही पास है। तो जब ये खाली वक़्त गुज़र जायेगा तो मैं उनकी इन शिकायतों  को मिस करूंगी | या कभी यूँ भी होगा कि उन्हें अपनी परेशानियों को सुलझाने के लिए मेरी जरूरत ही नहीं  होगी | जब बच्चे शिकायतें करते हैं तो उन्हें पता होता है कि मैं उनकी मदद कर सकूंगी | क्या पता एक दिन उन्हें मेरी मदद की जरूरत भी  नहीं रहेगी | पर आज तो है। और मैं उनकी मदद करती रहूंगी इस बोरियत भरे समय को गुजारने में | और उन्हें पूरा मौका दूँगी शिकायतें करने का | 
आज की व्यस्त जीवन शैली में, लक्ष्यप्राप्ति के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे बच्चों के लिए गर्मियों का ये खाली समय किसी उपहार से कम नहीं है। ये खाली समय न सिर्फ उन्हें अपनी समस्याओं को अपने  तरीके से सुलझाने में मदद करता है बल्कि और नई  रचनात्मक चीज़ों की तरफ रुझान बड़ाने में मदद करता हैं|  ये समय उन्हें उनके अपने सपनो और ख्वाबों में खोये रहने देने का मौका देता है | यही वो वक़्त है जब वे सीखतें हैं कि वे कैसे अपने जीवन में बहुत सी रोचक चीज़ें कर सकते हैं | और बोरियत एक रास्ता है जीवन के बहुत सारे नए रास्तों को जानने का| 

रविवार, 21 अप्रैल 2013

माँ की आँखों से कुछ नहीं छुप सकता । माँ  की आँखें सब कुछ देख लेती हैं, समझ लेती हैं बिना बताये ही, दो बच्चों की माँ होने पर भी जिस बात को मैं समझ नहीं सकी ,जीवन के इस गहन सत्य का अनुभव मुझे हाल ही में हुआ जब अत्यधिक व्यस्तताओं के चलते, स्वास्थ्य के प्रति कुछ लापरवाही हुई और डीहाईड्रेशन की वजह से मुझे कुछ दिन हॉस्पिटल में एडमिट रहना पड़ा था । उधर मम्मी चूँकि पैरालेसिस और हार्ट पेशेन्ट  हैं तो मैंने उन्हें बताना ठीक नहीं समझा । मेरी बेहद कर्मठ माँ लम्बी बीमारी के चलते डिप्रेशन का भी शिकार हो गईं  हैं  , तो जहाँ तक संभव हो सकता है मैं उन्हें खुश रखने का प्रयास ही करती हूँ और अपनी निजी समस्याओं से तो उन्हें बिलकुल भी अवगत नहीं कराती । हॉस्पिटल से फ़ारिग  होते ही मैं सबसे पहले उनसे मिलने पहुंची । अपने अस्वस्थ होने की बात छुपाते हुए मैंने जैसे ही उनका हाल जानना चाहा , तो अपनी वृद्ध और कमजोर नजरों से  उन्होंने मेरे चेहरे को ध्यान से देखा । और कुछ पलों के लिए मैं सहसा पाँचवी कक्षा में पड़ने वाली उनकी वही दस साल की गुड़िया बन गई जो कोई गलती हो जाने पर उनसे नज़रे चुरा लेती  थी  | अचानक उन्होंने मेरे सामने सवालों की झड़ी लगा दी | क्या बात है, तेरी तबियत ठीक नहीं है क्या ? सच बता बुखार है क्या ? तू मुझसे कुछ छुपा रही है क्या ? मैंने किसी तरह उन्हें इस बात पर आश्वस्त किया कि  मैं ठीक हूँ |
लेकिन अपने घर वापस आ कर मैं सारा दिन यही सोचती रही कि चलने फिरने में असमर्थ मेरी माँ जिन्हें कभी कभी दिन और रात का भी ज्ञान नहीं रहता ,वो मेकअप में छुपाये हुये  मेरे हँसते  मुस्कराते चेहरे के पीछे की छोटी सी परेशानी को भी पहचान गईं | अब समझ आता है कि क्यूँ माँ की तुलना भगवान से की गई है | माँ शारीरिक रूप से कितनी भी अशक्त क्यों न हो , उसकी ममता कभी भी क्षीर्ण नहीं होती |  वो सदा एक सी रहती है ।                                                                                                                                                अब लगता है कि  वो आज भले ही मेरे लिये कुछ नहीं कर पाती लेकिन शायद ये उनकी ही प्रार्थनाओं का फल है जो आज मैं  एक सुखी जीवन जी रही हूँ । अपने जीवन मैं जिस अज्ञात ऊर्जा का अनुभव करती रही हूँ वो शायद मेरी माँ ही हैं । माँ तुम हमेशा स्वस्थ रहो और अपने प्यार से सदा युहीं मेरा मनोबल बढ़ातीं रहना, युहीं हमेशा मेरे साथ बनीं रहना ..............

गुरुवार, 31 जनवरी 2013


कई साल बाहर रहने के बाद फिर वापिस अपने शहर में लौट  आई हूँ। मेरा शहर आज भी वैसे का वैसा, और शायद ये कभी बदलेगा भी नहीं। अपनी मिटटी की खुशबू वगेरह-वगेरह । और भी बहुत सी बातें आती  है दिमाग में, एक इमोशनल  फेक्टर तो रहता ही है। उसमें से भी हमारा घर जो शहर के बिलकुल ही पुराने इलाके में है। जो हमारे शहर  को 100% रेप्रेसेंट करता है। खलिस यूपी वाला माहोल है यहाँ। लोग कहाँ से कहाँ पहुँच गए लेकिन ये मोहल्ला आज भी वैसा है जैसा शायद 100 साल पहले रहा होगा। हर वर्ग के लोग रहते हैं यहाँ। ये  एक ऐसा शहर है जहाँ लोग काम कम करते हैं और बातें ज्यादा , और बातों में भी निंदा रस यहाँ के लोगो का एक पसंदीदा शौक  है। यहाँ के पुराने इलाकों में आज भी पुराने बने हुआ हवेलीनुमा मकान हैं जिनमे एक साथ 4-5 परिवार रहते हैं। संयुक्त व्यवसाय होने के कारण  एक ही परिवार के 4-5 लड़के अपनी गृहस्थियों के साथ लड़ते झगड़ते हुए रहते हैं। घर खर्च के लिए बाप दादाओं के समय की पुरानी  दुकाने या बिजनिस होते हैं तो दिमागी रूप से ये लोग निश्चिन्त् और प्रसन्नचित्त रहते हैं। तो बात आई निंदा रस की, मैने यहाँ पर रह कर लोगों की जीवनशैली का थोडा बहुत अध्यन कर के ये निष्कर्ष निकाला कि  यहाँ जो जितना कम काम करता है उतना ही ज्यादा निंदा रस में लिप्त रहता है। वैसे भी जो वाकई काम करता हैं उसके पास इतना वक़्त ही कहाँ होता है कि  बैठ  कर गप्पें मार सके। यहाँ के लोगों ने अपने  घरों में ही काम खोल रखें हैं, तो  समय व्यतीत करने के लिए एक दुसरे के घरों में जा बैठते हैं। मोहल्ले में एक -दो घर ऐसे हैं जहाँ सुबह शाम की महफ़िलें आम हैं। इनमें से 2-4 लोग इन गुटों के प्रतिनिधि होते हैं जो मोहल्ले के सारे घरों में घूम घूम कर निंदा के लिए विषय तैयार करने का काम करते हैं। इनकी दिनचर्या कुछ इस तरह शुरू होती है कि  सुबह की चाय और शाम की चाय के वक़्त किसी एक निश्चित जगह पर सभी लोग आकर  बैठ  जाते हैं और फिर अपनी अपनी समझ और जानकारी के हिसाब से  व्याक्खान देना शुरू करते हैं। इनके पसंदीदा विषय होते हैं- फलाँ के यहाँ हुई  शादी, फलां के यहाँ आई नई  बहू , महंगाई, राजनीति  , क्रिकेट, आदि । ये लोग सलाह देने में भी माहिर होते हैं। आपको बिना मांगे सलाह देंगे और वो भी मुफ्त। और यदि आप कभी इनके विचारो से असहमत हों तो समझिये कि आप इनकी नज़रों में  नासमझ साबित हो जायेंगे। और गलती से भी अगर आपने इनसे बहस करने की कोशिश की तो समझ लीजिये कि  आपकी शामत ही  आ गई। अपने विचारों का जरा सा भी विरोध इन्हें पसंद नहीं। और यदि किसी भी विषय पर आप इनसे तर्क करें तो अपने सारे जीवन का अनुभव और ज्ञान आप पर उढेल  देंगे। और और आपको अच्छे से समझा देंगे कि  वो चीज़ क्यां हैं।


"ये गलत कहा किसी ने ,मेरा पता नहीं है ,मुझे ढूँढने की हद तक ,कोई ढूँढता नहीं है।"
ईश्वर है या नहीं इस बात पर अनेक तर्क वितर्क होते रहते हैं। लेकिन एक परम शक्ति के अस्तित्व के होने पर हम सबको विश्वास करना ही पड़ता है।बात आध्यात्म की हो या धार्मिक कर्मकांडों की, सब कुछ हमारे विश्वास पर टिका हुआ है। अनेक धर्मों  में अनेक प्रकार की मान्यताएं हैं। जहाँ हिन्दू धर्म में अनेको देवी-देवताओं की कथाएँ कहीं जाती हैं वही उसी हिन्दू धर्म में अहम् ब्रह्स्मामि  का भी उल्लेख  मिलता है।
आत्मा हो या परमात्मा कोई तो है जो हमारी जीवन रुपी नैया  का खेवैया है। धर्म के प्रति सब की अलग -अलग मन्यताएं हैं। कोई पूजा -अर्चना आदि से ईश्वर को खुश करना चाहता है, तो कोई स्वयं अपने अन्दर के सत्य से साक्षात्कार करना चाहता है। लौट फिर के बात वहीँ आ जाती है कि  ईश्वर प्राप्ति कैसे हो?  यूँ तो मैं  भी एक ब्राह्मण हूँ । वृन्दावन में बांके बिहारी मंदिर के पास ही के मकान  में मेरी ननिहाल है। मेरी नानी बेहद धार्मिक होने के साथ साथ छुआ-छूत  को मानने वालीं थी। जीवन भर वे राधा-कृष्ण की अष्ट धातु की मूर्तियों की सेवा पूजा में लगी ृ रहीं । उनके विचारों में साफ-सफाई  रखने को इश्वर भक्ति माना  जाता था। खाना बनाने और पूजा करने के लिए वे तांत की सफ़ेद साडी का प्रयोग करतीं थीं। अपनी रसोई में वे खड़िया से लकीर बना  लेती थी जिसे पार करना सबके लिए वर्जित होता था। माथे पर गोपी चन्दन लगाये हुए, दूध सी सफ़ेद काया और राधे राधे जपती  वे मुझे किसी देवी सी लगती थीं। उनके विचारों ने मेरे बाल मन को बहुत प्रभावित किया। और शायद यही कारण  है कि  मेरी रसोई और पूजाघर में आज भी उनके विचारों की  छाप सी दिखाई देती है। ये और बात है की इससे परिवार के अन्य सदस्यों को कुछ असुविधा सी होती है। मेरे अन्दर के ब्राह्मण ने मुझे धार्मिक तो बनाया लेकिन कहीं -कहीं अध्यात्म के प्रति मेरे झुकाव ने मुझे अपने अन्दर के सत्य को भी ढूँढने के लिए उकसाया। मेरे अन्दर पूजा-पाठ और अध्यात्म के बीच एक युद्ध सा चलता रहा। अंत में  मैं इस निष्कर्ष पर पहुंची कि हम चाहें कितने भी देवी-देवताओं को पूजते रहे लेकिन जीवन तभी सार्थक होता है जब हम अपने मन को इश्वर से जोड़ पाएं। मेरी शादी भी एक बेहद धार्मिक परिवार में हुई , सास शास्त्रों की ज्ञाता थीं। रीति-रिवाज और पूजा पाठ में उनका बेहद विश्वास था। आधुनिक सोच की होने के बाद भी मैं उन्ही परम्पराओं में ढलती चली गई । देवी-देवताओं में मेरी आस्था उम्र के साथ और भी बड़ती  गई।लेकिन वहीं मेरे अन्दर ये सोच और भी प्रबल होती गई कि  ईश्वर को मानने का मतलब सिर्फ मंदिर में बैठकर पूजा-पाठ करना नहीं है, बल्कि अपने अन्दर के इश्वर को ढूँढना भी जरूरी है। ईश्वर से हमारा मन का रिश्ता है। उसे इन आँखों से देख पाना संभव नहीं है बल्कि उसके लिए अपनी मन की आँखों को खोलना जरूरी है। और लोगों की तरह मैं भी रोज मंदिर जा कर पूजा अर्चना करती हूँ लेकिन मेरे लिए आज भी पूजा का वास्तविक अर्थ ईश्वर से संवाद स्थापित करना है। ईश्वर को पाने के लिए हम यहाँ वहां भटकते तो हैं लेकिन अपने अन्दर के ईश्वर से कभी मिल नहीं पाते। पर उससे मिलना क्या इतना ही आसान  है। जिस सत्य को पाने के लिए ऋषि मुनि हिमालय पर जाकर  तपस्या करते हैं उसे हम जैसे सामान्य मनुष्य कैसे पा सकते हैं? फिर भी सबके अपने -अपने तरीके हैं, सबकी अपनी अपनी सोच है। कोई भजन कीर्तन से कान्हा को बुलाना चाहता है तो कोई मस्जिद में अजान  देता है। पर वो सबकी सुनता है और सबको राह दिखाता है। छोटा हो या बड़ा, अमीर हो  या गरीब  । बस जरूरत है उसे दिल से पुकारने की।

दुनिया में सब बेकार है अगर आप को रात  को चैन की नींद न आये।
आप बेशुमार दौलत कमा लें, शोहरत कमा  लें लेकिन अगर रात  को बिस्तर पर लेटने के बाद सुकून  की नींद न आये तो इससे ज्यादा परेशानी की बात और कोई नहीं। ये एक ऐसी बेशकीमती चीज़ है जिसकी कीमत वही लोग समझ सकते हैं जो रात में नींद की गोलियां खाकर सोया करते हैं। ये नींद भी एक अजीब चीज़ है जब आप चाहते हैं तब नहीं आती और जब नहीं चाहते तब बरबस आँखों को बंद किये जाती है। कभी किसी छोटे बच्चे को सोते हुए देखा है ? कितनी मीठी नींद सोता है वो। या कभी अपनी दादीमाँ को, जो ज़रा सी आवाज़ से चौंक कर उठ जाती हैं।किसी ने क्या खूब कहा है " सो जाते हैं फुटपाथ पे अख़बार बिछा कर, मजदूर कभी नींद की गोली नहीं खाते। नींद के भी कई वेरिफ़िकेशन्स हैं, इसका  जिन्दगी से एक अजीब सा कॉर्डिनेशन होता है। ये या तो उन्हें नसीब होती है जो सब कुछ अचीव कर चुके हों या जिनके पास खोने के लिए कुछ भी न हो। इसका ख़ुशी से भी गहरा ताल्लुक है। दुनिया में  ख़ुशी का हर किसी का अलग अलग पैमाना  होता है। इसको डिफाइन करना बहुत मुश्किल है। हर कोई ख़ुशी को अपने अपने चश्मे से देखता है। एक आम आदमी के लिए उसकी उपलब्धियाँ ही उसकी  ख़ुशी का मापदंड होती हैं। फॅमिली, अच्छी जॉब ,एक घर, बड़ी कार ,साउंड बैंक बैलेंस ,और भी न जाने क्या-क्या। लेकिन अगर इन सब चीज़ों के बाद भी नींद न आये तो सब कुछ बेमानी सा हो जाता है। तो ये बात समझ में आती है कि नींद का मटेरिअलिस्टिक चीजो से कोई सरोकार नहीं है बल्कि ये दिमागी सुकून पर निर्भर करती है और दिमागी सुकून के लिए जरूरी है कि हमारा दिल खुश रहे।।ये दिल भी बड़ी अजीब शह  है। कभी तो सब कुछ पाकर भी खुश नहीं रहता और कभी इक छोटी सी चीज़ पाकर ही बहल जाता है। और एक बार अगर ये जिद पर आ जाये तो फिर चाहे उसे सारी दुनिया ही क्यों न मिल जाये वो उसी एक चीज़ पर ताउम्र मचलता रहता है जो उसे हासिल नहीं हो पाती । अब बात जब दिल की आती है तो मुझे जगजीत सिंह की ग़ज़ल का वो शेर याद आता है कि "दिल भी एक जिद पे अड़ा है किसी बच्चे की तरह, या तो सब कुछ ही उसे चाहिए या कुछ भी नहीं।"


बुधवार, 23 जनवरी 2013

कहते  हैं कि  हर आम आदमी के अन्दर एक गाँधी, एक दार्शनिक ,एक  विचारक, एक इंकलाबी छुपा हुआ होता है।वो दुनिया की खामियों को महसूस भी करता है और उन्हें बदलना भी चाहता है। लेकिन परिस्थितियाँ उसे चुप  रह सब कुछ बर्दाश्त करने पर मजबूर करती है। और हो भी क्यों न , भीड़ से अलग  चलने के लिए जिस  साहस की जरूरत होती है ,जो एक आम आदमी के लिए जुटा  पाना संभव नहीं हो पाता। हम सब के जीवन में बहुत से ऐसे मौके आते हैं जब हम न चाह कर भी चुप रहते है। या हमारी परिस्थितियां हमें कुछ बोलने से रोक देती हैं । उस वक़्त तो हम चुप रह जाते हैं लेकिन बाद में वो पल हमें अन्दर ही अन्दर कचोटते रहते हैं। मेरे साथ भी गुज़रे वर्षों में एक ऐसा ही  वाकया  हुआ था। जिस पर मुझे आज तक बेहद पछतावा है, अभी कुछ ही वर्षों पहले इनका ट्रान्सफर दूसरे शहर हुआ था, नया शहर ,नए लोग मैं दोनों छोटे बच्चों के साथ घर सेट करने में लगी हुयी थी। हमारे फ्लैट के आसपास कौन रहता था मुझे इसकी बिलकुल खबर नहीं थी। दोनों बच्चे चलने लगे थे और जरा भी दरवाजा खुला रह जाने पर बाहर  निकल जाते थे। घर फर्स्ट फ्लोर पर होने के कारण में हमेशा दरवाजा बंद किये रहती थी। मुझे हमेशा बच्चों  का सीड़ियों से गिर जाने का डर लगा रहता था। रोज़ की तरह जब एक दिन जब मेरे पति ओफिस गए हुए थे ,दोपहर के वक़्त मैं बच्चों को  सुलाकर टीवी के चैनल बदल रही थी। बाहर कॉलोनी में सन्नाटा था। वैसे भी महानगरों में दिनदहाड़े चोरी और डकेती की घटनाएं इतनी बड़  गयी हैं कि महिलाएं सचेत रहने लगी हैं। लोग दिन में भी अपने घरों में ताला  डाले रहते हैं।पुरुष काम पर चले जातें हैं और अधिकांश महिलाएं  दोपहर में सास बहु के सीरियल देखने में व्यस्त हो जाती हैं। गर्मियों की ऐसी ही एक सूनसान दोपहरी में अचानक मुझे किसी औरत के जोर-जोर से रोने और चिल्लाने की आवाज आई। वो जोर जोर से लोगो को मदद के लिए पुकार रही थी।लेकिन घर थोडा दूरी पर होने के कारण  मुझे कुछ स्पष्ट सुनाई नहीं दे रहा था। वहीँ पास ही के एक मकान में निर्माण कार्य चल रहा था,और मजदूर काम कर रहे थे। मुझे लगा कि शायद आवाज सुन कर मजदूर उस महिला के घर जाकर देखें , लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ना ही  पास के किसी भी घर से कोई भी मदद के लिए निकल कर आया। मैं  खुद को रोक नहीं पा रही थी,जी किया की भाग कर जाऊं और देखूं की उस महिला के साथ क्या हुआ है। लेकिन छोटे-छोटे बच्चो को  घर में अकेला  छोड़ कर जाने की हिम्मत मैं  नहीं जुटा  पाई।  महिला चेख -चेख कर मदद के लिए पुकारती रही और फिर एक चीख के साथ वहां सन्नाटा छा  गया। धीरे-धीरे उस मकान के बाहर लोगो की भीड़ जुटने लगी। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। बाद में मुझे पता चला कि  उस महिला के इकलोते बेटे ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी। मैं स्तब्ध थी, उससे भी ज्यादा अपने आप से शर्मिंदा थी कि  उस महिला के पुकारने पर भी मैं मदद के लिए उसके घर नहीं जा पाई।  साथ ही मुझे हैरानी भी  हुई  कि वहां आस पास रहने वाले लोग कितने स्वार्थी थे जो इतनी आवाजें सुन कर भी अपने घरों से बाहर नहीं निकले।  आज इतना समय बीत जाने पर भी मैं अपने आप को माफ़ नहीं कर पाती हूँ। मेरे दिल में आज भी यही पछतावा है कि अगर उस दिन मैं वहां जा कर देख लेती तो शायद वह महिला अपने इकलोते बेटे को नहीं खोती । महानगरों में ऐसी घटनाएँ आए दिन घटती रहती है ,जब हमारी आँखों के सामने ही कोई बेबस दम तोड़ देता है और हम तमाशा देखने के अलावा कुछ नहीं करते। आज जब समाज प्रगति कर रहा है। हम सब आधुनिकता की दौर में एक दूसरे से आगे निकलने के प्रयास में हैं, हमारे अन्दर की मानवता  कहीं धीरे धीरे दम तो नहीं तोड़ रही है?

मंगलवार, 22 जनवरी 2013

सपने देखना मनुष्य का स्वभाव है।हम अपने निजी जीवन में अनेक प्रकार की भ्रांतियां पाले  रहते हैं और इन्हीं भ्रांतियों के चलते हम अपने लिए सपनो का एक ताना -बाना बुनने लगते हैं।इसी उम्मीद को लेकर जीने लगते हैं की कब वो सपने सच होंगे और उनके पूरे न होने पर मायूस हो जाते हैं।पर किसी ने क्या खूब कहा है "जिन्दगी कोई रिकॉर्ड प्लेयर नहीं है, जिस पर हम अपन मनपसंद संगीत सुन सके, बल्कि वो एक रेडियो की तरह है जिसे हमें  रेडियो स्टेशन  की फ़्रिकुएन्सी  के हिसाब से सेट करना पढता है।" इसी सच को अगर हम भली भांति समझ जाएँ तो शायद हमें अपनी सारी समस्याओं का हल मिल जाये।अपनी क्षमताओं का सही आकलन कर स्वयं को परिस्तिथियों के अनुरूप ढाल कर ही हम एक सन्तोषजनक जीवन जी सकते हैं।धारा के विपरीत नहीं  धारा के साथ बह कर ही पार लगा जा सकता है।लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि  हम सपने देखना छोड़ दें।क्योंकि दिल तो वो जिद्दी बच्चा  है जो हमेशा ही किसी नए खिलोने की तलाश में रहता है।सपने देखें और उन्हें पूरा करने का प्रयास भी करते रहे लेकिन साथ ही साथ वर्तमान की परिस्थितियों के साथ सामंजस्य भी बनाना सीख लें। जिससे यदि कभी कोई एकाध सपना टूट भी जाये तो हम हताश न हों।कभी कभी ऐसा होता है कि  कोई बहुत ही प्रतिभाशाली व्यक्ति अवसर न मिल पाने की दशा में अपनी क्षमता से कम कार्य करने को मजबूर हो जाता है। और कोई कम योग्यतापूर्ण व्यक्ति चालाकी से  अवसर प्राप्त करके आगे निकल जाता है। इस स्थिति में असंतोष और क्षोभ होना लाज़मी है। लेकिन साथ ही हमें ये याद  रखना चाहिए कि  चालाकी और चाटुकारिता के साथ जीवन के कुछ पढाव तो पार किये जा सकते हैं लेकिन लम्बी रेस का घोड़ा  तो वही होता है जो अपनी कार्यक्षमता और योग्यता से अपने कार्य क्षेत्र में अपना लोहा मनवाता है। प्रतिस्पर्धा के इस दौर में बहुत जरूरी है कि  हम स्वयं को नकारात्मक सोच से बचाएँ और अपनी प्रतिभा का सही इस्तमाल करके स्वयं को समय के साथ आगे बढ़ायें । जीवन के प्रति अपने उत्साह को कभी कम न करें और अपनी सोच को हमेशा सकारात्मक बनाएं रखें। दूसरों से अपनी तुलना करना न सिर्फ समय की बर्बादी है बल्कि एक अवगुण है जो हमें हमारे लक्ष्य से भ्रमित करता है। रोज़ थोडा समय अपने लिए निकालें। लम्बी सैर पर जायें और मेडीटेशन करें।अपनी मानसिक शक्ति को बढायें तभी शारीरिक रूप से पूर्णतः स्वस्थ रह पाएंगे। अपनी उपलब्धियों पर खुश होना सीखें, परिवार को समय दें और जीवन की छोटी छोटी खुशियों को जीना सीखें।