मंगलवार, 19 जून 2012


बहुत दिनों से कुछ अच्छा  नहीं पड़ा था, कि अचानक कुछ दिनों पहले गौरव सोलंकी के बारे में अख़बार में लेख पड़ा, जी हाँ वही सौ साल फ़िदा वाले गौरव सोलंकी जिन्होंने हाल ही में ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार ठुकरा कर साहित्य जगत में हलचल सी पैदा कर दी थी। अच्छा लगा जान कर की iit roorki से निकला एक इंजीनियर जो कॉर्पोरेट जगत में सम्भावनाएं तलाशने की बजाय साहित्य के मैदान में कूद पड़ा  है और वो भी हिंदी साहित्य। पल भर को ऐसा लगा कि 3 ईडीयट्स के आमिर खान के बारे में पढ रही हूँ जो फिल्म में कहता है कि वो करो जो दिल चाहे। पर ये लिखने का कीड़ा  होता ही ऐसा है जो जब तक अन्दर ही अन्दर कुलबुलाता रहता है जब तक कलम उठा कर अन्दर की सारी  हलचलों को  कागज पर उढ़ेल न दे । कुछ समय पहले भी मैंने इंडिया टुडे के एक अंक में इसी से मिलता जुलता लेख पढा था कि कुछ बड़ी कंपनियों के शीर्ष अधिकारी नौकरी छोड़ कर गाँवों  में बस गए और खेती बड़ी करने लगे। ये तो होना ही था आधुनिकीकरण की आंधी में इन्सान पढ लिख तो जाता है, और पैसा भी कमा लेता है मगर उसकी दिमागी भूख तो तभी शांत होती है जब वो कुछ ऐसा करता है जो उसका दिल चाहता है। तो मुद्दा ये है की 3 ईडीयट्स तो हिट हुई लेकिन जाते-जाते युवा पीड़ी के आगे एक सवाल उठा गई कि वो करें जिसकी परिवार और समाज आपसे अपेक्षा करता है या वो करें जो आपका दिल चाहता है? आज लोगों के दिल में जो अवसाद घर कर रहा है, जो बैचेनी सी देखी जा रही है उसका कारण भी यही है। बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ पाने और पैसा कमाने के नए रास्ते निकलते जा रहे हैं लेकिन साथ ही अपेक्षायें और प्रतिस्पर्धा भी बढती जा रही है। और इसका सीधा-सीधा असर पड़ रहा है आम आदमी की सेहत से। लेकिन जब तक हमें इसका ख्याल आता है तब तक जिन्दगी बहुत आगे निकल चुकी होती है। क्या आपके साथ कभी ऐसा हुआ है की जिन्दगी के 10 साल एक झटके में गुज़र जायें।
और उन 10 सालों में जो भी करना हो वो कुछ भी आप न कर पाएं।जब तक करने का सोचें वक़्त हाथ से निकल जाये।क्या आपके साथ  भी ऐसा कुछ हुआ है? कभी -कभी लगता है कि हम सब जिन्दगी को जीते हैं या ये जिन्दगी हमें जीती है। दिल कहता है कि वक़्त से कहें वापिस चल उसी जगह, मुझे बहुत कुछ करना था। लगता है जैसे की अपने साथ जस्टिफाई नहीं किया। पर अब क्या फायदा। टाइम हैज गोन माय डियर , पर फिर दिल कहता है कि जो किया वो भी कुछ बुरा तो नहीं। लेकिन आखिर ऐसा होता क्यों है? क्यूँ जिन्दगी की भागदौड़  में हम अक्सर उन छोटी-छोटी चीज़ों को नज़रअन्दाज कर देते हैं जो हमें सबसे ज्यादा पसंद होती हैं। पढ़ाई , केरीयर, नौकरी, शादी और फिर बच्चे, इन सब में इतना मशगूल हो जाते हैं कि  धीरे-धीरे हम खुद को भूल जाते हैं। फिर एक दिन अचानक आईना देख कर चौंक जाते हैं  कि  अरे ये कौन है? अपने आप ही में वो छोटे छोटे बदलाव जिन्हें हम देख नहीं पाते ,एक दिन अचानक हमें इतना बदल देते हैं कि लगता है कि हम वो है ही नहीं जो हुआ करते थे। याद  है आपको आखिरी बार आप कब बारिश में भीगे थे? या आखिरी बार अपने कब अपनी मनपसंद ग़ज़ल सुनी थी? या आखिरी बार कब माँ के हाथ का लज़ीज़ खाना खाया था? नहीं याद ना ! होगा भी कैसे हम तो जैसे एक नियमित टाइमटेबल से जीने  के आदि हो चुके हैं। और अगर छुट्टियाँ मिले भी तो अपनी नींद पूरी करने में लगे रहते  हैं। दिल बेचारा फिर अपनी ख़वाहिशों को अन्दर ही अन्दर दबाए रखता है। सिक्कों की खनखनाहट में दिमाग इतना उलझ गया है कि दिल तो बस धड़क-धड़क कर शरीर की नसों में खून की सप्लाई करने वाला एक अंग ही बन कर रह गया है। क्या पता कि ऐसा ही चलता रहा तो इससे भावनाएं भी निकलनी बंद हो जाएँगी।
तो क्या अब और ग़ालिब नहीं होंगे जो कहें?......
                      दिल-ए -नादाँ  तुझे हुआ क्या है, आखिर इस दर्द की दवा क्या है?

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