सोमवार, 2 जुलाई 2012

यादों का मौसम


उस पुराने मकान  में क्या अब भी मेरे बचपन की पर्रछाइयाँ होंगी। वो कमरे वो दीवारें जहाँ मैंने अपनी उम्र का एक लम्बा हिस्सा बिताया था, क्या आज भी मेरी आवाज वहां गूंजती होगी?............ मेरे आँगन में लगे पेड़ क्या अब भी हरे होंगे,क्या अब भी बारिश में हमारे कचनार पर बैगनी रंग के फूल आते होंगे? हमारा वो आम  का पेड़   क्या अब भी गर्मियों में नन्हे-नन्हे आमो से भर जाता होगा, वो बेलपत्र जिस पर मेरा झूला पड़ा रहता था क्या आज भी घनी छाँव देता होगा?....... हमारे बगीचे की वो मिट्टी जिसमें मैं खिलोने बनती थी क्या आज भी बारिश में खुशबू देती होगी? वो तुलसी जिस पर माँ रोज दीपक जलाती थीं क्या अब भी हरी -भरी होगी ,क्या अब भी हमारे आँगन का नीम ठंडी हवा देता होगा, जिसके नीचे शाम को हमारी चारपाईयाँ  बिछ  जाती थीं?............ क्या अब भी हमारे आँगन में चिड़ियों और कबूतरों का वो झुण्ड आता  होगा जिन्हें पिताजी दाना  चुगाया  करते थे ? वो जामुन अब कौन खाता होगा जो पक कर अपने आप गिर जाते थे, क्या आज भी बच्चो के झुण्ड उन्हें बीनने आते होंगे? वो शेह्तूत के पेड़ की सबसे ऊंची डाली जिस पर मैं बेठ  जाया करती थी क्या आज भी वैसी ही होगी?......................... वो तालाब  जिसके किनारे मैं और मेरी सहेलियां  खेलती  थीं ,क्या आज भी बारिश के पानी से भर जाता होगा, मुझे याद  हैं कैसे मैं थैली में मछलियाँ भर लाया करती थी और उन्हें कांच के मर्तबान में पानी में रख लेती थी, रात को उस तालाब के किनारे क्या अब भी जुगनू चमकते  होंगे और बारिश में मेंढकों के नन्हे बच्चे टर्र-टर्र  करते होंगे? ...............................वो खरगोश, गिलहरी और तोते तो अब वहां  नहीं आते होंगे, पर क्या वो नीलकंठ चिड़िया अब भी वहां दिखाई देती होगी ? मुझे याद  है कैसे सावन के महीने में वहां मेरे पुकारने पर कोयल कुहू-कुहू करती थीं , क्या अब भी वहां मोर पीहू -पिहू करके शोर मचाते होंगे? या मेरे जाने के बाद सब खामोश हो गए होंगे? .......................................
अब तो ये सब एक सपना सा लगता है, और भी जाने कितनी यादें हैं मेरे दिल में हमारे उस घर की जो अब शायद वीरान  सा हो गया होगा ,हमारी खिलखिलाहटों से गूंजते उस घर में अब एक सन्नाटा पसरा हुआ होगा, वो घर जो कभी हमारा घर हुआ करता था आज बस एक खाली मकान बन कर रह गया होगा।

6 टिप्‍पणियां:

  1. शायद वो सब कह देते जो उनके के भी जुबा होती. पर न दीवारों के जुबां है न पद पौधों के पास आवाज़. वरना वो जरूर कहते 'छोडकर जाने वाले! आ कर तो देख तेरे बिना हम में से आधे अब नही रहे.और शायद एक दिन इंतज़ार करते करते हम ...हमारी आँखें भी पथरा जायेगी

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  2. शायद इन सन बेजान चीजों की जुबां हम सुन नहीं पाते और उनके एहसास कों समझ नहीं पाते ...

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  3. बहुत भावुक रचना. सच है हमारा घर हमारे बाद कैसा रहता है घर रहता या मकान बन जाता है, क्या मालूम वो सब जो हमसे बिछुड गए उतना ही याद करते हैं जितना हम, क्या मालूम सब कुछ वैसा ही अब भी होगा जैसा हम छोड़ आए...

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  4. Nahi Shabnamji ,
    Ek baar ghar chod dene par apne man me yaadom ke alava kuch nahi bchtaa hai.
    vinnie

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