गुरुवार, 28 जून 2012


रोज शाम होते ही आ बैठती  हूँ,
 बालकनी  में ,
अपने हिस्से के आसमान से
थोड़ी हवा की उम्मीद में,
सड़क से उडती धूल ,
 रोज रेलिंग पर जम जाती है ,
पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि  ,
साफ किया हो मैने उसे,
शाम होते ही ,
अपनी कोहनियाँ जमाये बैठ  जाती हूँ वहीं ,
और रोज वो मिटटी,
 मेरी  कोहनियों पे लग जाती है,
फिर भी रोक नहीं पाती  हूँ खुद को,
एक अजीब सी बैचैनी होती है,
उस शाम को देख लेने की,
डूबता हुआ सूरज,
पार्क में खेलते बच्चे,
घर वापिस लौटते लोग,
जाने क्यूँ सुकून सा मिलता है,
एक प्याली चाय के साथ,
उस ढलती हुयी शाम को देखने में।

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