मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

साल के आखिरी दिनों का हिसाब …यानि अलविदा कहना एक और साल को। बिलकुल वैसे ही जैसे जाते हुए मुसाफिर को एक बार फिर मुड़ कर देखना … लेकिन जाने क्यों मुझे आज भी विदा कहना नहीं आया.....  मेरे लिए ये वक़्त बहुत डिप्रेसिव हो जाता है …  वैसे ही जैसे हर बार सनसेट पॉइंट आते ही मैं मुंह फेर लेती हूँ.……  सूरज को डूबते हुए देखना वैसे भी कहते हैं अच्छा नहीं होता। वक़्त के गुज़र जाने का एहसास एक खालीपन छोड़ जाता है.....  फिर भी ये वो वक़्त है जब पुराना पीछे छूटता है और हम उम्मीद करते हैं नवीनता की। यूँ तो कुछ खास नहीं बदलता है लेकिन हम फिर भी उम्मीद करते हैं कि नया साल हम सब के लिए कुछ नया, कुछ खास लेकर आएगा।
 साल दर साल कुछ नए रिश्ते बनते जाते है और कुछ पुराने बन जाते हैं। हमारी आदत है कि हम टूटे हुए रिश्तों को भी सहेज के रखना चाहते हैं.… और वहीँ नए रिश्तों का जश्न भी मनाते हैं। समय जो हमसे लेता है उसे किसी न किसी रूप में लौटना चाहता है। लेकिन फिर भी टूटे हुए रिश्तों को भूल कर आगे बढ़ जाना इतना आसान नहीं है.....  खरोंचों की तरह रह-रह कर तकलीफ देते हैं। यही वजह है कि मुझे चिड़ होती है जब लोग हिसाब लगाने लगते हैं गुज़रे हुए साल का....... क्या खोया क्या पाया गिनने लगते हैं उँगलियों पर। और मैं भी अनजाने ही वही करने लगती हूँ यह जान कर भी कुछ नहीं मिलेगा मुझे। कुछ और रिश्तों के दूर हो जाने का दर्द कचोटने लगेगा दिल को। फिर अचानक ख्याल आता है उन ढेर सारे छोटे-छोटे लम्हों का जो इस साल थोड़ी सी ख़ुशी की उम्मीद दे गए …… उन चंद दोस्तों का जो मिल कर मुझे हँसा गए ……  और ये एहसास दिला गए कि जिंदगी अभी भी ख़ूबसूरत है। बस उन्हीं चंद लम्हों को देखकर आगे बढ़ने का ख्याल आता है। और मैं दिल ही दिल शुक्रिया अदा करने लगती हूँ उन दोस्तों का … और ईश्वर का भी … 
साल के आखिरी दिनों का हिसाब …यानि अलविदा कहना एक और साल को। बिलकुल वैसे ही जैसे जाते हुए मुसाफिर को एक बार फिर मुड़ कर देखना … लेकिन जाने क्यों मुझे आज भी विदा कहना नहीं आया.....  मेरे लिए ये वक़्त बहुत डिप्रेसिव हो जाता है …  वैसे ही जैसे हर बार सनसेट पॉइंट आते ही मैं मुंह फेर लेती हूँ.……  सूरज को डूबते हुए देखना वैसे भी कहते हैं अच्छा नहीं होता। वक़्त के गुज़र जाने का एहसास एक खालीपन छोड़ जाता है.....  फिर भी ये वो वक़्त है जब पुराना पीछे छूटता है और हम उम्मीद करते हैं नवीनता की। यूँ तो कुछ खास नहीं बदलता है लेकिन हम फिर भी उम्मीद करते हैं कि नया साल हम सब के लिए कुछ नया, कुछ खास लेकर आएगा।
 साल दर साल कुछ नए रिश्ते बनते जाते है और कुछ पुराने बन जाते हैं। हमारी आदत है कि हम टूटे हुए रिश्तों को भी सहेज के रखना चाहते हैं.… और वहीँ नए रिश्तों का जश्न भी मनाते हैं। समय जो हमसे लेता है उसे किसी न किसी रूप में लौटना चाहता है। लेकिन फिर भी टूटे हुए रिश्तों को भूल कर आगे बढ़ जाना इतना आसान नहीं है.....  खरोंचों की तरह रह-रह कर तकलीफ देते हैं। यही वजह है कि मुझे चिड़ होती है जब लोग हिसाब लगाने लगते हैं गुज़रे हुए साल का....... क्या खोया क्या पाया गिनने लगते हैं उँगलियों पर। और मैं भी अनजाने ही वही करने लगती हूँ यह जान कर भी कुछ नहीं मिलेगा मुझे। कुछ और रिश्तों के दूर हो जाने का दर्द कचोटने लगेगा दिल को। फिर अचानक ख्याल आता है उन ढेर सारे छोटे-छोटे लम्हों का जो इस साल थोड़ी सी ख़ुशी की उम्मीद दे गए …… उन चंद दोस्तों का जो मिल कर मुझे हँसा गए ……  और ये एहसास दिला गए कि जिंदगी अभी भी ख़ूबसूरत है। बस उन्हीं चंद लम्हों को देखकर आगे बढ़ने का ख्याल आता है। और मैं दिल ही दिल शुक्रिया अदा करने लगती हूँ उन दोस्तों का … और ईश्वर का भी … 

शनिवार, 27 दिसंबर 2014

मैं हमेशा से ही भाग्यवादी रही हूँ। मेरा मानना है कि जीवन में जो भी घटित होता है वह पूर्वनिर्धारित होता है। फिर उसे हम किसी भी सूरत में परिवर्तित नहीं कर सकते। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि ईश्वर में अपने अटूट विश्वास के कारण मुझे लगता है कि कोई भी मनुष्य उसके कार्य में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। यही कारण रहा है कि ज्योतिष या किसी और तरीके से भाग्य बदलने का दावा करने वाले व्यक्तियों पर सहजता से विश्वास नहीं कर पाती। लेकिन साथ ही मैं ये मानती हूँ कि प्रार्थनाओं में बहुत शक्ति होती है। और यदि वास्तव में संसार में ऐसे लोग हैं जो किसी के भी भाग्य को बदल सकते हैं तो अभी तक ऐसे किसी व्यक्ति से मेरा साक्षात्कार ही नहीं हो पाया है। ख़ैर जो भी हो ये मेरी व्यक्तिगत सोच है कि मैं किसी भी कार्य को इसलिए नहीं कर सकती कि उसमें मेरा कुछ भला हो। हाँ अपने मनमौजी स्वभाव के चलते स्वयं की ख़ुशी और संतुष्टि के लिए मैं वह काम ख़ुशी-ख़ुशी कर सकती हूँ। सब दिल की उमंग पर निर्भर करता है।  यदि कोई मुझसे कहे कि मैं गाय को भोजन खिलाऊँ या चीटियों को आटा खिलाऊँ तो मेरा भाग्योदय होगा तो शायद आत्मग्लानि के चलते ऐसा कर ही नहीं पाऊँगी। बस ये ही विचार आएगा कि ऐसा मैंने अपने किसी स्वार्थवश किया। और नाही मेरे अंदर वो संतुष्टि का भाव आएगा कि मैंने कोई नेक कार्य किया है। हाँ जैसा कि मैंने पहले कहा कि दिल की आवाज के चलते यदि किसी के लिए कुछ किया तो मन ख़ुशी से झूम उठेगा। बस यही वजह है कि सबको अपनी तरक्की और खुशहाली के लिए बहुत से नेक कार्य करते देख कर भी उसमें कुछ नेकी नहीं ढूंढ पाती हूँ। और यही लगता है कि वह काम दूसरे की भलाई के लिए नहीं बल्कि अपनी भलाई की मंशा से किया जा रहा है। अपने मोहल्ले के टॉमी, भूरा और कालू के लिए हम अक्सर पार्टी कर देते हैं लेकिन भाग्योदय की इच्छा से उन्हें रेगुलर बेसिस पर रोटी खिलाएं ये हमसे नहीं हो पता। अपनी बालकनी पर आकर बैठने वाले बंदरों के लिए कुछ न कुछ रख देना हमारी आदत है ,लेकिन संकटों से मुक्ति के लिए उन्हें स्पेशल ट्रीटमेंट देना संभव नहीं हो पता। फिर ये तो सेल्फिशनेस होगी न। फिर भी अपना -अपना विश्वास है। पंडितजी ने बताया है तो सच ही होगा। अब हमारी समझ में नहीं आ रहा है तो कमी हम में ही होगी। :) :)

गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

आज क्रिसमस है। सुबह उठकर मैंने मन ही मन मदर मैरी को प्रणाम किया। ऐसा जीवन में पहली बार हुआ है। यूँ तो मैं अपने धर्म के अलावा भी अन्य सभी धर्मस्थलों पर सर झुकाती हूँ। लेकिन मदर मेरी के लिए मेरे मन में जो श्रद्धा जागी है, उसका एक विशेष कारण है। अंदर से मैं आज भी वही रूढ़िवादी ब्राह्मण हूँ। पर अभी हाल ही में मेरा साक्षात्कार इस सत्य से हुआ कि अगर कोई सच्चे दिल से दुआ करे तो मज़हब कहीं भी आड़े नहीं आता है। अभी पिछले दिनों की ही बात है मैं यूँही अपने बेटे के बारे में बात करने उसके स्कूल उसकी प्रिंसिपल के पास गई थी। जो एक नन हैं। सभी लोग उन्हें सिस्टर कह कर बुलाते हैं। किसी वजह से उस दिन मैं थोड़ी परेशान थी। यूँ तो मैं आमतौर पर अपनी तकलीफें किसी से शेयर नहीं करती लेकिन  सिस्टर के स्नेहिल व्यव्हार और आत्मीयता के कारण मैंने उनसे अपनी परेशानी के बारे में जिक्र किया। मेरी बात सुनकर उन्होंने कहा कि हम तुम्हारे लिए मदर मैरी से प्रार्थना करेगा । उस के बाद मैं वहां से चली आई। कुछ दिनों में मेरी उस समस्या का हल निकल निकल आया।
फिर एक दिन मैं अपने घर पर थी। बाहर हलकी-हलकी बारिश हो रही थी। तभी मैंने देखा कि सिस्टर छाता लिए घर के अंदर आ रही हैं। मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। मुझे देखकर वे बोली हम बस तुमको देखने आया है कि तुम कैसा है ? सिस्टर के इन प्रेमपूर्ण शब्दों को सुनकर मेरी आँखों में आँसू आ गए। जहाँ आज के समय में रिश्ते-नाते भी स्वार्थवश मात्र एक औपचारिकता बन कर रह गए है। छोटी-छोटी बातों के लिए लोग दूसरों का दिल दिखने से नहीं चूकते। वहीँ सिस्टर ने पराई हो कर भी मेरे प्रति मातृवत व्यव्हार दर्शाया और मेरी फ़िक्र में मेरा घर ढूंढ कर मुझसे मिलने चली आईं। फिर मैंने उन्हें बताया कि उनकी प्रार्थनाओं के फलस्वरूप मेरी परेशानी का हल निकल आया है। यह जान कर वे बहुत खुश हुईं।  मुझे हमेशा ईश्वर से यह शिकायत रहती थी कि
उन्होंने मेरी माँ को बीमार क्यों कर दिया। मेरी माँ के बीमार हो जाने के बाद से मुझे लगने लगा था कि कोई मेरी चिंता करने वाला नहीं है। उस दिन मुझे ऐसा लगा कि ईश्वर मुझसे ये कहना चाह रहा कि उसे मेरी कितनी चिंता है। सिस्टर के रूप में शायद ईश्वर ही मुझे यह बताने आया था कि जब हम स्वयं को नितांत अकेला और कमजोर महसूस करते हैं तब भी वह हमारे साथ होता है। और किसी न किसी रूप में वह हमें अपनी उपस्तिथि का एहसास करता है। बस उसी दिन से मेरे मन को माँ दुर्गा और मदर मैरी में कोई फ़र्क़ नज़र नहीं आता।

बुधवार, 24 दिसंबर 2014

परालौकिक विषयों पर बहुत खोज की गई है और बहुत से दावे भी किये जा चुके है। लेकिन मृत्यु के बाद मनुष्य कहाँ जाता है ,आत्मा कहाँ विचरण करती है ये आज भी हम सब के लिए कौतहूल का विषय है। क्या जीवन के उपरांत भी कोई संसार है? जहाँ वास्तव में हमारे अच्छे और बुरे कर्मों का निर्धारण होता है या ये सब महज कोरी कल्पनायें हैं? इस सन्दर्भ में जो भी हमे ज्ञात है वो हमारे धर्मग्रंथों से मिला हुआ ज्ञान है। आदि गुरुशंकराचार्य द्वारा लिखित निर्वाणषट्कम् में अद्वैत वेदांत के विषय में जो छह श्लोक दिए गए हैं उनमें भी यही चित्रित किया गया है। लेकिन इसके विषय में अभी तक कोई भी वैज्ञानिक तथ्य प्राप्त नहीं हुआ है कि मृत्यु के उपरांत भी कोई जीवन है या नहीं।

भगवत गीता में भी यही कहा गया है कि मृत्यु के बाद हमारी आत्मा इस शरीर का त्याग कर देती है और फिर दूसरा शरीर धारण कर लेती है। और तब उसकी पूर्व जन्म की स्मृति का विलोप हो जाता है। मेरे अनुमान से ऐसा ही कुछ इस्लाम और ईसाई धर्मग्रंथों में भी माना गया है। लेकिन  का अभाव होने के कारण मानव मन में यदा कदा कुछ प्रश्न उठते रहते है। बहुत से लोगो ने कहा है कि उन्होंने आत्माओं से साक्षात्कार किया है। कुछ लोग जिन्होंने मृत्यतुल्य बीमार होने के बाद दुबारा जीवित होने का दावा किया ,उन्होंने बताया कि उन्होंने अपनी आत्मा को शरीर से बाहर जाते और फिर लौट कर वापिस आते हुए देखा है। वे आत्मा के रूप में किसी दूसरे संसार में गए और वहां से उन्हें वापिस भेज दिया गया। लेकिन इन साक्ष्यों पर लोग अधिक विश्वास नहीं करते हैं।
इस बात का दूसरा पहलू यह भी है कि हम जो आए दिन अख़बारों में पढ़ते है कि फलां गाँव में एक बच्चे ने अपने पूर्व जन्म के परिवारजनो को पहचान लिया और उनके बारे में सब कुछ सही-सही बतला दिया। लेकिन खोजकर्ताओं को इसमें भी संदेह है। खेर जो भी हो हमारे हिन्दू धर्म में आत्मा और पुनर्जन्म की अवधारणा को बहुत ही गंभीरता से लिया जाता है। जैसे श्राद्धपक्ष, पिंडदान और मृत्योपरांत किये जाने वाले कर्मकांड । यह सब मृत व्यक्ति की आत्मा की शांति के लिए ही कराये जाते है। और ऐसा मन जाता है की इन्हें ना करने पर उस व्यक्ति की आत्मा भटकती रहती है और उसे मुक्ति नहीं मिलती है।
आजकल कुछ टेलीविज़न चैनलों पर भी इस प्रकार के प्रोग्राम दिखाए जाते है जिनमे लोगो को उनकी अवचेतन  अवस्था में पहुंचा कर उनकी आत्मा से प्रश्नो का उत्तर जाना जाता है। रहस्यों भरे इस विषय में अभी तक सही मायनों में पूरी तरह संतुष्ट कर देने वाला कोई तर्क प्रस्तुत नहीं किया गया है। हम सब  धर्म वक्ताओं और धार्मिक ग्रंथों में लिखी हुई बातों पर विश्वास किये जा रहे हैं।  और जहाँ प्रमाण और साक्ष्य प्रस्तुत करने की बात उठती है वहाँ मौन या निरुत्तर हो जाते हैं.। शोध के अभाव में यह विषय आज भी अनछुआ रह गया है। इस रोचक और जिज्ञासा भरे विषय में अभी बहुत रिसर्च करने की जरूरत है। लेकिन लगता नहीं कि मानव की कल्पनाओं की भी पहुँच से परे इस संसार के रहस्य को कभी कोई हल कर पाएगा। 

किसी ने मुझसे कहा ये जो तुम इतना घबराती रहती हो, इसे एंग्जाइटी कहते हैं। इसकी एक दवा आती है होमिओपैथी में। मैं  हैरान हो गयी सुनकर। अच्छा तो अपनों की फ़िक्र, उन्हें खो देने का डर भी एक बीमारी है। यदि ऐसा है तो फिर मुझे किसी रीहैब में ले चलो ,मैं बीमार ही सही। लेकिन सच कहूँ तो जिंदगी में इतना कुछ खोया है कि अब जो है उसे सहेज के रखना चाहती हूँ। डरती हूँ कि मेरे अपनों को कोई तकलीफ न हो। बाकि हाँ कभी-कभी बेवजह की बातों पर भी परेशान हो जाती हूँ।  यूँ ही कभी उदास रहने लगती हूँ या बहुत रोने को जी चाहता है। लेकिन फिर ज्यादा देर उदास भी नहीं रह पाती। थोड़ी सी देर में फिर खिलखिलाने लगती हूँ। देर रात अगर गलती से भी किसी ने फोन कर दिया तो फ़ोन की घंटी सुनते ही दिल में वो बेचैनी होती है कि जिसका कोई हिसाब नहीं। टीवी पर कोई दुखद घटना देख लेती हूँ तो उदास हो जाती हूँ।
अपने सितारे ही कुछ ऐसे हैं, कि जिंदगी ने बचपन से अब तक हर कदम पर एक इम्तिहान लिया है। फिर भी दिल ने ख़ुशी को ढूंढने का हर भरसक प्रयास किया है। 
रात के तीन बजे, आईसीयू के बाहर बैठी मैं, आँखों में नींद का नामो-निशान तक नहीं, बस पता नहीं क्या सोचे जा रही थी। घटनाएं धीरे-धीरे मेरे दिमाग में घूमने लगती हैं। जो दृश्य सबसे पहले सामने आते हैं , उनमें सबसे ज्यादा  मम्मी के आँचल को पकड़े घूमना। और फिर उनका खाना लेकर मेरे पीछे लगे रहना । फिर पापा  का मेरी बर्थडे पार्टी अरेंज करना। उन्हें मालूम है कि बर्थडे पर मैं बहुत ज्यादा वल्नरेबल हो जाती हूँ। बहुत ज्यादा इम्पोटेंस चाहिए होती है मुझे। फिर भैया का चेहरा आँखों के आगे घूमने लगता है। ओफ्ओह  इतना प्यार , इतनी पजेसिवनेस कि कभी कभी मुझे गुस्सा आने लगता था। सब कुछ कितना ठीक चल रहा था फिर अचानक क्यों ? सब कुछ क्यों बदल गया। मुझे अपना वही घर पसंद है पुराना वाला, जहाँ हम सब खुश थे , बहुत खुश। जिंदगी मेरे प्रति सदा सौतेला व्यहवार क्यों रखती है? हर ग़म हँस के सह लिया ,तकलीफों में भी मुस्कुराती रही। कभी कोई शिकवा नहीं, शिकायत भी नहीं, फिर भी मुझे खुश रहने का हक़ क्यों नहीं है ? एम्बुलेंस की आवाज से डर लगता है। बहुत पुराना डर है ये। ये वार्डबॉय का हंसना बहुत बुरा लगता है। जी करता है उससे कहूँ तुम कैसे हंस सकते हो जब तुम्हारे सामने किसी का कोई अपना बीमार पड़ा है। लेकिन उसके लिए तो यह महज़ एक रूटीन है। मुझसे पूछो मुझ पर क्या गुज़रती है जब मेरा कोई अपना इस तरह बीमार होता है। नहीं, मुझे नहीं पसंद ये आईसीयू, ये वार्डबॉय, बहुत घबराहट होती है यहाँ। कभी नहीं आना चाहती मैं यहाँ। 

मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

क्यों आते हैं ऐसे मौसम जो जिंदगी में उदासी सी भर जाते हैं। मुझे यूँ तो सर्दियाँ भाती हैं लेकिन सिर्फ अक्टूबर की गुलाबी सर्दियाँ। ऐसी एक्सट्रीम ठण्ड नहीं कि जिसमें उँगलियाँ सुन्न हो जाती हैं। धमनियों में खून जमने लगता है। कितने ऊब भरे हैं आलस्य से भरे हुए ये दिन। मुझे वो हर मौसम ख़राब लगता है जो दिल में उदासी भरता है। एक खालीपन जो डराता है, दिल बैठने लगता है। शायद क्यूंकि मुझे प्यार है जिंदगी से। मुझे हर उस चीज़ से प्रेम है जो निरंतर चलती रहती है। ये कोहरे की चादर जो सब जगह छा जाती है मुझे बिलकुल भी अच्छी नहीं लगती। मैं फूलों को मुरझाते हुए नहीं देख सकती। मैं पेड़ों को सूखते हुए नहीं देख सकती। मुझे खुली धूप में उनका खिलना अच्छा लगता है, बारिश में उनका भीगना भी। लेकिन यूँ सर्दियों में उनका मुरझाना मुझे उदास करता है। लोग घरोंमें कैद हो जाते हैं। यात्राएँ स्थगित हो जाती हैं। मुसाफिर अपनी मंजिल तक नहीं पहुँच पाते। सड़क के किनारे अलाव जलाये बैठे लोग कैसे सामना करते हैं रात भर ठंडी हवाओं का। मेरे लिए बेशक ये मौसम है फ़िल्टर कॉफ़ी का, चॉक्लेट पेस्ट्री का , कुल्हड़ वाली चाय का और हीटर के आगे रज़ाई में ऊंघते रह कर मूंगफली की गज़क खाने का। लेकिन फिर जब सुबह अख़बार में कोहरे की वजह से होने वाले हादसों के बारे में पढ़ती हूँ तो दिल बैठने सा लगता है। चिढ़ होने लगती है इस बेरहम मौसम से। और मेरी कोई दुश्मनी नहीं है इस सर्द मौसम से।
वैसे कभी मुझे भी इश्क़ था दिसंबर के महीने से। लेकिन अब वो गुज़रे ज़माने की बात हो चुकी है। अब यादें धुंधली हो गयीं है। ब्लोअर के आगे बाल सुखाने का वो एहसास, वो सफ़ेद सूट पर हलके हरे रंग का पश्मीना शाल। वो कॉफी से निकलती हुई भाप। तब मुझे जाड़ों में भी सर्दी कहाँ लगती थी। बहुत लुत्फ़ लिया करती थी मैं इस मौसम का। और आज कोई मुझसे रज़ाई से बाहर कदम रखने को कह दे तो वो मेरा सबसे बड़ा दुश्मन बन जाता है। 

रविवार, 14 दिसंबर 2014

अभी घर में सफाई करते वक़्त एक पुराने मोबाइल का मेमोरी कार्ड मिला।  जिसमें कुछ गुज़रे सालों के वीडियो क्लिप थे। देख कर दिल खुश हो गया। बहुत ही खूबसूरत लम्हे कैद थे उन वीडियो क्लिप्स में। एक वीडियो में मेरा नन्हा सा बेटा खिलखिलाकर हंस रहा था। उम्र कोई एक साल की रही होगी। ऐसा लगा कि मैंने उसे पहली बार देखा है। मैं तो भूल ही गई थी कि वो तब कैसा दिखता था। अगली क्लिप में मेरी तकरीबन दो साल की बेटी डांस कर रही थी। उसका गोल-मटोल प्यारा सा चेहरा देख कर जी किया कि उसे जी भर कर प्यार करूँ। कितनी शैतान थी वो, कितनी नटखट। अगली कई क्लिप्स भी उन दोनों की शैतानियों से भरी थीं। कभी रसोई में आटे के ड्रम से पूरा आटा निकाल कर एक दूसरे के सर पर डाल देते थे और कभी पूरा वाशिंग पाउडर का डिब्बा बाल्टी में डाल कर झाग ही झाग बना देते थे। एक बार इसी तरह दोनों मुझे फ्लैट में बंद कर के खुद दरवाजे से बाहर निकल गए । तब तक वे सिर्फ दरवाजे को बंद करना जानते थे उसे खोलना नहीं। खिड़की से वॉचमन को आवाजें लगा कर किसी तरह मैंने दरवाजा खुलवाया। अगली वीडियो में था आगरा से भोपाल जाने के बाद हमारा पहला घर। वो घर जिसे देख कर मुझे एक गीत की ये  पंक्तियाँ याद आ गई थीं - 'फूलों के शहर में हो घर अपना '। बहुत ही शांत प्रिय और सभ्य लोगो की कॉलोनी थी वो । वहीँ हमारे बच्चों ने पहली बार चलना सीखा। वीडियो  बाहर मेन गेट  की थी जहाँ दोनों बच्चे थे। घर की खिड़की से कोई गाना बजने की आवाज आ रही थी।  वहां जाते वक़्त मैं अपना म्यूजिक प्लेयर साथ ले जाना नहीं भूली थी। जिसमें अपने मनपसंद  गाने लगा कर में बच्चों में व्यस्त हो जाती थी। अनजान लोग, अनजाना शहर, फिर भी बहुत खुश थी मैं। घर के सामने ही तरह -तरह के फूलों से भरा बगीचा था, जो उस वीडियो क्लिप में नज़र आ रहा था। घर के सामने एक साउथ इंडियन परिवार रहता था जिनके दो टीनएज बच्चे थे शायद रोहित और रीतिका । अब तो वे बहुत बड़े हो गए होंगे। और भी बहुत से परिवार थे वहाँ। मुझे आज भी याद है कि वो हमारा पहला दिन था भोपाल में।  घर में सामान सेट करने के बाद हम रात को कॉलोनी में टहलने के लिए निकले। कॉलोनी में गणेश उत्सव मनाया जा रहा था। वहीँ सब से मुलाकात हो गई और कुछ ही पलों में वो पराया सा लगने वाला शहर मेरा अपना हो गया और वहां के लोग भी। दूसरी क्लिप हमारे कानपुर वाले घर की थी।  उस क्लिप में भी बच्चे बहुत छोटे थे। शायद बेटे का तीसरा जनम दिन था उस दिन। और हम कहीं बाहर डिनर के लिए जा रहे थे। बच्चे सजे-संवरे खड़े हुए थे। कानपुर की उन तीन चार क्लिप्स में से दो वहां के मॉल की हैं। जिनमें हम शायद नया साल मनाने आए हुए थे। देख कर ख़ुशी हुई की कैसे मैं दोनों बच्चो के साथ मॉल में घूम रही थी। कोई फ़िक्र नहीं, बस यूँही हँसते मुस्कुराते हुए वक़्त बिता रहे थे। दिल से आह सी निकली, काश वक़्त उन लम्हों में ही रुक जाता ,ठहर जाता। लेकिन वक़्त कब किसके रोके रुकता है। जिंदगी की हबड़-तबड़ में वक़्त कितनी जल्दी गुज़र गया कुछ पता ही नहीं चला। ये मेरी जिंदगी का सबसे खूबसूरत समय था। शादी के कुछ साल बाद ही अपना शहर छोड़ कर छोटे-छोटे दो बच्चों के साथ दूसरे शहरों में निकल जाना। और फिर करीब १० सालों तक चार अलग-अलग शहरों में रहना। ऐसा लगा ठीक से बच्चो को बड़ा होते देख ही नहीं पाई।  ज़िन्द्गी के सबसे हसीं पल यूँ ही गुज़र गए। कितने प्यारे लगते थे बच्चे। मैं खुद भी कहाँ बहुत बड़ी थी। २४-२५ साल की उम्र और दो छोटे बच्चों और घर की जिम्मेदारी। लेकिन  हँसते खेलते वक़्त गुज़र ही गया। इसी बीच बहुत से नए लोगो से भी मिली।  जीवन के खट्टे-मीठे अनुभव भी हुए। लेकिन अब मुड़ कर देखो तो लगता है कि शायद इस वक़्त को और बेहतर तरीके से भी जिया जा सकता था। बच्चो पर और खुद पर थोड़ा और ध्यान दिया जा सकता था। लम्हों को कुछ और जिंदादिली से जिया जा सकता था।  लेकिन ये तो सिर्फ एक ख्याल है। वक़्त जैसे भी गुज़रा अच्छा  गुज़रा।  उन वीडियो क्लिप्स को देख कर एक अजीब सा अहसास हुआ कि अगर अगले दस सालों बाद फिर मुझे कोई वीडियो क्लिप मिले तो मैं इन लम्हों को देख कर भी क्या यूँ ही खुश हो पाऊँगी। ऐसा लगा की वक़्त ने मेरे दरवाजे पर दस्तक दे कर कहा है कि रुको थोड़ा। देखो मैं  कितनी तेज़ी से बदल रहा हूँ।  जिंदगी गुज़र रही है ,जी भर कर इसका मज़ा लो। इसे जिंदादिली से जियो। क्यूंकि ये वक़्त फिर वापिस नहीं आएगा। तो अपनी जिंदगी की तमाम खूबसूरत चीज़ों से प्यार करो। बच्चो को  खूब दुलार दो। जीवन साथी के साथ थोड़ा वक़्त गुज़ारो । यूँ लग रहा है मानो झिंझोड़ कर रख दिया है मुझे । और मैं नींद से जाग उठी हूँ। महसूस हो रही है हर लम्हे की कीमत । जिंदगी हर मोड़ पर हमें वक़्त की कीमत बताती है। हम फिर भी अनजान से रहते हैं। और खुद को यूँही बेवजह की बातों में मसरूफ रख कर वक़्त यूँही गुज़र देते हैं और बाद में मलाल करते हैं। इंसान तजुर्बों से सीखता है और इस वक़्त मुझे वो शेर याद आ रहा है ''क्या कहें जिंदगी में क्या होगा , कुछ न होगा तो तजुर्बा होगा ''।

शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

'सितारों से आगे जहाँ और भी हैं'

परालौकिक विषयों पर बहुत खोज की गई है और बहुत से दावे भी किये जा चुके है। लेकिन मृत्यु के बाद मनुष्य कहाँ जाता है ,आत्मा कहाँ विचरण करती है ये आज भी हम सब के लिए कौतहूल का विषय है। क्या जीवन के उपरांत भी कोई संसार है? जहाँ वास्तव में हमारे अच्छे और बुरे कर्मों का निर्धारण होता है या ये सब महज कोरी कल्पनायें हैं? इस सन्दर्भ में जो भी हमे ज्ञात है वो हमारे धर्मग्रंथों से मिला हुआ ज्ञान है। आदि गुरुशंकराचार्य द्वारा लिखित निर्वाणषट्कम् में अद्वैत वेदांत के विषय में जो छह श्लोक दिए गए हैं उनमें भी यही चित्रित किया गया है। लेकिन इसके विषय में अभी तक कोई भी वैज्ञानिक तथ्य प्राप्त नहीं हुआ है कि मृत्यु के उपरांत भी कोई जीवन है या नहीं।
भगवत गीता में भी यही कहा गया है कि मृत्यु के बाद हमारी आत्मा इस शरीर का त्याग कर देती है और फिर दूसरा शरीर धारण कर लेती है। और तब उसकी पूर्व जन्म की स्मृति का विलोप हो जाता है। मेरे अनुमान से ऐसा ही कुछ इस्लाम और ईसाई धर्मग्रंथों में भी माना गया है। लेकिन  का अभाव होने के कारण मानव मन में यदा कदा कुछ प्रश्न उठते रहते है।
 बहुत से लोगो ने कहा है कि उन्होंने आत्माओं से साक्षात्कार किया है। कुछ लोग जिन्होंने मृत्यतुल्य बीमार होने के बाद दुबारा जीवित होने का दावा किया ,उन्होंने बताया कि उन्होंने अपनी आत्मा को शरीर से बाहर जाते और फिर लौट कर वापिस आते हुए देखा है। वे आत्मा के रूप में किसी दूसरे संसार में गए और वहां से उन्हें वापिस भेज दिया गया। लेकिन इन साक्ष्यों पर लोग अधिक विश्वास नहीं करते हैं।
इस बात का दूसरा पहलू यह भी है कि हम जो आए दिन अख़बारों में पढ़ते है कि फलां गाँव में एक बच्चे ने अपने पूर्व जन्म के परिवारजनो को पहचान लिया और उनके बारे में सब कुछ सही-सही बतला दिया। लेकिन खोजकर्ताओं को इसमें भी संदेह है। खेर जो भी हो हमारे हिन्दू धर्म में आत्मा और पुनर्जन्म की अवधारणा को बहुत ही गंभीरता से लिया जाता है। जैसे श्राद्धपक्ष, पिंडदान और मृत्योपरांत किये जाने वाले कर्मकांड । यह सब मृत व्यक्ति की आत्मा की शांति के लिए ही कराये जाते है। और ऐसा मन जाता है की इन्हें ना करने पर उस व्यक्ति की आत्मा भटकती रहती है और उसे मुक्ति नहीं मिलती है।
आजकल कुछ टेलीविज़न चैनलों पर भी इस प्रकार के प्रोग्राम दिखाए जाते है जिनमे लोगो को उनकी अवचेतन  अवस्था में पहुंचा कर उनकी आत्मा से प्रश्नो का उत्तर जाना जाता है। रहस्यों भरे इस विषय में अभी तक सही मायनों में पूरी तरह संतुष्ट कर देने वाला कोई तर्क प्रस्तुत नहीं किया गया है। हम सब  धर्म वक्ताओं और धार्मिक ग्रंथों में लिखी हुई बातों पर विश्वास किये जा रहे हैं।  और जहाँ प्रमाण और साक्ष्य प्रस्तुत करने की बात उठती है वहाँ मौन या निरुत्तर हो जाते हैं.। शोध के अभाव में यह विषय आज भी अनछुआ रह गया है। इस रोचक और जिज्ञासा भरे विषय में अभी बहुत रिसर्च करने की जरूरत है। लेकिन लगता नहीं कि मानव की कल्पनाओं की भी पहुँच से परे इस संसार को कभी कोई भी जान पाएगा।

शनिवार, 22 नवंबर 2014

कहते हैं की प्रकति हमसे बातें करती है। कभी कोई मौसम ,कोई फ़िज़ा किसी पल में आकर खुद हमसे कहती हैं की आओ देखो कितनी सुंदरता भरी हुई हैं तुम्हारे चारों तरफ़। थोड़ा वक़्त तो निकालो प्रकति से वार्तालाप के लिये। अक्टूबर हमेशा से ही इतना खूबसूरत रहा है, मुझे आज भी याद है सालों  पहले भी मैं अक्टूबर की शामों को इतना ही पसंद करती थी । पता नहीं कब इस खूबसूरत महीने ने मुझे बताया की हाँ यही है वो मौसम जो मेरा पसंदीदा है। यही है वो वक़्त जब मेरा दिल कवितायेँ लिखना चाहता है, अपने सबसे पसंदीदा रंगो के कपडे पहन कर इठलाना चाहता है और चेहरे पर महसूस करना चाहता है इस गुलाबी हवा को। वक़्त बदलता है पर वो कुछ चीज़ें नहीं जो हमें हमेशा से पसंद होती हैं बिलकुल वैसे ही जैसे अक्टूबर की ये खूबसूरत शाम।
रिश्ते पौधों की तरह होते हैं इन्हें समय-समय पर  र्स्नेह, धैर्य और त्याग से सींचना पड़ता है। लेकिन मैं ये भी मानती हूँ की रिश्तों में यदि सत्यता है तो वे स्वयं ही निभते चले जायेंगे लेकिन यदि जहाँ ईर्ष्या , अहं और गुस्से ने वहां घर बना लिया तो उस स्थिति में रिश्ते मात्र एक औपचारिकता बन कर रह जाते हैं। हमारे साथ अक्सर ऐसा होता है कि जिन रिश्तों के पीछे हमने अपना सारा जीवन निकल दिया होता है वे ही स्वार्थवश अंत में हमसे विश्वासघात कर बैठते हैं। तो क्या किया जाये उन रिश्तो से मुंह मोड़  लिया जाये या उन्हें माफ़ करके जीवन को आगे बढ़ाया जाये। पर दिल पर लगी हुई  चोटें  क्या सहज ही भुला दीं  जा सकती हैं। हमारे अपने जिन से हम निश्छल, निःस्वार्थ ,प्रेमपूर्ण  व्यव्हार की अपेक्षा करतें हैं उनके ही मुंह से कहे हुए कड़वे शब्द क्या आसानी से भुलाये जा सकते है? शायद नहीं।  जगजीत सिंह की ग़ज़ल का एक शेर है "गाँठ अगर लग जाये तो फिर रिश्ते हों या डोरी, लाख करें कोशिश खुलने की वक़्त तो लगता है"।

रविवार, 25 मई 2014

आईपीएल फ़ीवर गोज़ ऑन


आईपीएल के दिन हैं। पूरा मोहाली आईपीएल के रंग में रंगा हुआ है। मोहाली स्टेडियम घर से बस थोड़ी ही दूर है। रोज स्कूल से लौटते में बच्चे बस की खिड़की से उसे निहारते हैं।  घर आते ही बच्चे मुझसे मैच देखने जाने की जिद करने लगते हैं। यूँ तो मुझे क्रिकेट की एबीसीडी भी समझ नहीं आती लेकिन क्रिकेट के ग्लैमर और फिल्म स्टार्स को देखने की ललक में मेरा भी मन मैच देखने को करने लगता है। वैसे भी मोहाली स्टेडियम के सामने से निकलते वक़्त वहां की टिकट विंडो पर लगी भीड़ को देख कर और स्टेडियम पर लगे हुए सचिन और कपिल के बड़े-बड़े होर्डिंग्स को देख कर सिर्फ क्रिकेटप्रेमी ही नहीं बाकि लोग भी अंदर जाने को लालायित होने लगते हैं। बच्चों के पापा चूँकि खुद भी क्रिकेट फैन हैं तो हमने भी टिकट्स बुक करा ही लिये।
      बच्चे बहुत खुश हैं। फ़ाइनली आज हम मैच देखने जा रहे हैं। आज मैच कोलकता  नाइट राइडर्स और पंजाब किंग्स इलेवन के बीच है। मैच से ज्यादा हम शाहरुख़ खान को देखने के लिए उत्साहित हैं। ठीक पॉंच बजे हम स्टेडियम पहुँच गये। मेन गेट पर एन्ट्री के लिए लोगो की लम्बी लाइन लगी हुई है। अंदर जाने के लिए लोगो का उत्साह देखते ही बन रहा है। अलग-अलग टीवी चैनलों के कैमरामैनों की भीड़ लगी हुई है। अचानक एक टीवी रिपोर्टर मेरी तरफ माइक बढ़ती हुई पूछती है " हेलो मेम , आर यू हिअर टु सपोर्ट शाहरुख़ खान्स टीम और प्रीती जिंटाज़"?  इस अप्रत्याशित प्रश्न का उत्तर सोचते हुए मैं अचंभित सी कुछ कहती तब तक पति माईक लेकर शाहरुख़ के लिए चियर्स करने लगे। कैमरे की तरफ हाथ हिलाते हुए हम गेट के अंदर की तरफ बढ़े। 
तेज रौशनी से जगमगाते हुए विशाल स्टेडियम को देख कर हम ख़ुशी से फूले नहीं समाए। और उस पर भी सबसे आगे की सीट मिलने पर दिल बाग-बाग हो गया। जोर से म्यूजिक बज रहा था। चीयरलीडर्स चमकीले कपड़ों में झूम रही थीं। थोड़ी ही देर में खिलाडी मैदान पर अभ्यास के लिए आ गये। गांगुली, इरफ़ान और युवी को अपनी आँखों के सामने मस्ती में उछल-कूद करते देख कर बच्चे ख़ुशी से झूम उठे. । पर जब कुछ देर में पता चला कि शाहरुख़ खान आज नहीं आ रहा तो हमारा सारा जोश ठंडा हो गया । ये बात और है कि प्रीती जिंटा के आने से और टीनएजर्स की तरह उसके उछलने कूदने से हममें फिर से जोश आ गया। और थोड़ी ही देर में दोनों टीमों  ने अपनी-अपनी पोज़िशन  संभाल लीं और मैच शुरू हो गया। देखते ही देखते पूरा स्टेडियम मैच के माहौल में रंग गया। हर कोई अपनी-अपनी टीम के लिए चीयर कर रहा था।

रविवार, 23 मार्च 2014

जमुना

                                              
अपने जीवन में बहुत सी सशक्त महिलाओं से मेरा परिचय हुआ। कई  उच्चशिक्षित, आत्मनिर्भर ,बुद्धजीवी  एवं दबंग महिलाओं  से मेरा संपर्क रहा है,लेकिन जीवन जीने की कला को सीखने में जिन्हें मैंने अपनी प्रेरणा माना वे एक बहुत ही साधारण सी ,सीधी-साधी ,घरेलू  महिला थीं,  मेरी दादी -श्रीमती जमुना देवी। जिन्हें मैं  अम्मा कहा करती थी। अम्मा ने शायद कभी किसी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा था लेकिन अपने जीवन की पाठशाला ने उन्हें बहुत कुछ सिखा दिया था। आज जब भी कभी मैं छोटी -छोटी  समस्याओं से घबरा जाती हूँ तो बरबस ही वे मुझे याद  आ जाती है। सहनशीलता और सामंजस्य इन शब्दों का सही मतलब मुझे अम्मा ने ही सिखाया। अम्मा जिनकी छाया  में मैंने अपना बचपन बिताया, वे मुझे अपनी दादी के रूप में नहीं बल्कि अपने बचपन की एक सखी के रूप में याद  आती हैं। मैं  उनके साथ खेलती थी, नाचती-गातीं  थी,दुनिया भर की बातें करती थी। लेकिन अब उनके जाने के बाद मुझे समझ आया है कि  खेल खेल में ही अम्मा मुझे जिन्दगी का ककहरा समझा गयीं। अम्मा का स्वाभाव उनके नाम के अनुरूप ही था, जमुना की अरह ऊपर से चंचल और अन्दर से शांत,गंभीर । जो वृद्धावस्था तक एक सा ही रहा। नब्बे साल की उम्र तक भी उनमें किशोरियों जैसी चंचलता थी। दुबली पतली, छोटे  कद की अम्मा  में गज़ब की फुर्ती थी। अपनी युवावस्था के दिनों में वो कैसी रही होंगी ये तो उनकी धुंधली, ब्लैक एन वाईट  तस्वीरों को देख कर ही थोडा बहुत अन्दाजा अम्मा ने जो मुझे बताया उससे मैंने यही जाना की उकी शादी बारह वर्ष की उम्र में ही कर दी गयी। पाँच  बहनों वाले मध्यमवर्गीय परिवार में अमा दुसरे नंबर की संतान थीं। यही कारण था की उनकी बातों  में हमेशा उनकी ससुराल का ही वर्णन मिलता था। स्कूली शिक्षा न मिलने के बावजूद किताबें अम्मा के जीवन का अभिन्न हिस्सा थीं धार्मिक, किस्से-कहानियों की, नीम हकीम वाली, हस्त रेखा , अंक ज्योतिष, स्वप्न फल अदि हर अरह की किताबों को अम्मा बेहद रूचि से पढ़ती थीं। पुरानी  से पुरानी  किताब को भी वे जिल्द लगाकर संभल कर रखती थीं।
मेरे दादाजी श्री धरनीधर शर्मा एक बेहद ही आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे।
गोरा रंग, नीली आँखें, लम्बा कद कहा जाता है की वे जब अंग्रेजों के बीच बैठते थे तो बिलकुल उन जैसे ही लगते थे। और अम्मा इस के बिलकुल विपरीत थी। आकर्षक नैन नक्श होते हुए भी  अम्मा केवल रंग और कद काठी में बाबा से मेल नहीं खाती थीं। अम्मा का मायका आगरा की लालकिले वाली सड़क पर था जिसके एक तरफ यमुना नदी बहती है,जिसे यमुना किनारा रोड भी कहा जाता है। अम्मा बताती थीं की उनकी सगाई होने के बाद बाबा उसी रस्ते से अपने विद्यालय जाया करते थे तो उनकी बहाने चिल्लाकर कहती थीं जमुना देख तो कौन जा रहा है ? और अम्मा लपक कर घूंघट की ओट  में से छज्जे से बाबा को निहार लिया करती थीं।
एक बार जब शादी के बाद अम्मा और बाबा ट्रेन से सफ़र कर रहे थे तो उनके डिब्बे में बैठी एक अँगरेज़ महिला उन्हें देख कर कहने बोली की हिन्दुस्तानियों को शायद जोड़े बनाना नहीं आता है। इस पर अम्मा केवल मुस्कुरा कर रह गयीं थीं। लेकिन इन बातों  से उनके प्रेम में कभी अंतर नहीं आया। बाबा ज्वाला बैंक में मेनेजर हुआ करते थे। उनकी पोस्टिंग सहारनपुर में थी। शादी के 22 वर्ष तक अम्मा के कोई संतान नहीं हुयी थी। घर की बड़ी बहु सो छोटी उम्र में ही उनके सास ससुर उनसे बहुत से पोते  पोतियों की अपेक्षा करने लगे थे।बहुत इलाज कराया गया। किसी ने कुछ बताया और किसी ने कुछ। लेकिन जब अम्मा की देवरानी के भी संताने हो गयीं तो घरवालों का धेर्य टूटने लगा। वर्षों तक अम्मा बाँझ होने का लांक्षन सहती रही।लोगो के प्रश्नों और व्यंगों को सहती रहीं। कई बार तो बाबा के दुसरे विवाह कराये जाने की बात भी की जाने लगीं। लेकिन भगवान के अलावा और किसी के सामने विचलित नहीं हुयी। असीम धेर्य था अम्मा में। उनकी मूक प्रार्थनाओं को आखिर इश्वर ने सुन ही लिया और चोंतीस साल की उम्र में अम्मा की सूनी गोद भर ही गयी। पापा का जन्म हुआ। अम्मा बाबा को जैसे भगवन ही मिल गए हों। बड़े ही लाड़ -प्यार  से उन्होंने पापा का नाम राजकुमार रखा। पापा के जन्म के छः साल बाद उनके छोटे भाई का जन्म हुआ। अम्मा का जीवन बस केवल बाबा और उनके दो बेटों के ही इर्द गिर्द घूमता था। गृहस्थी की भागमभाग के बीच उन्होंने दुनियादारी भी सीखा ही ली। अम्मा थोडा बहुत हाथ भी देख लिया करती थीं। या तो वास्तव  में उन्हें हस्तरेखा का ज्ञान था या फेस रीडिंग कहिये कि अम्मा जो बतातीं  थी वे अधिकतर  बातें सच निकलती थीं। अम्मा बेहद ही प्रेमपूर्ण थीं। लोग उनकी बातों  को मंत्रमुग्ध होकर सुनते थे। वे हमेशा लोगो की प्रशंसा कर के उन्हें मनोबल दिया करती थीं।
          अपने अंतिम दिनों में अम्मा ने पैसों को हाथ लगाना छोड़ दिया था , क्योंकि उन्हें लगता था कि माया ही सब  दुखों का कारण है। या फिर बेटे बहुओं और नाती पोतों से भरे घर में उन्हें इसकी आवश्यकता नहीं महसूस होती थी। वजह चाहें जो भी हो उन्होंने जीवन को सही अर्थो में जिया और अंत तक उनके मन में और जीने की इच्छा बनी रही। उन्होंने हमेशा मुझे यही समझाया कि जीवन एक संघर्ष है और उसका सामना हमें हँसते -मुस्कुराते हुए करना चाहिए। उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहुँच कर भी उन्होंने अपनी चंचलता और हंसमुख स्वभाव को नहीं छोड़ा। और हम सबके मन में अपनी वही सरल-सहज  ममतामयी छवि बसा कर वे सदा के लिए ईश्वर में लीन  हो गईं।




कॉमिक्स के दिन

                                




बच्चों  के एक्जाम्स क्या ख़त्म हुए  मानो मेरा सरदर्द शुरू हो गया । मुद्दा वही एक कि आखिर फ्री टाईम  में करें तो क्या करें ? एक के बाद एक फरमाइशों कि लिस्ट  आने लगीं।  मुझे प्ले-स्टेशन कि नई  सीडी चाहिए, मुझे डांस क्लासिस ज्वाइन करनी हैं, मेरे लिए बार्बी की एसेसरीज़ का सेट चाहिए, वगैरह वगैरह। खूब भागम- भाग के बाद भी बच्चे संतुष्ट नहीं होते।  मैं अपने बचपन को याद करने लगी। डिमांड्स हमारी भी हुआ करती थीं ,लेकिन ऐसी नहीं कि जिन्हें पूरा करते करते माँ बाप का मंथली बजट  ही गड़बड़ा जाये। फिर हमारे टाइम पास करने के साधन भी लिमिटिड ही हुआ करते थे। जैसे लूडो, सांप-सीढ़ी , कैरम, दूरदर्शन और सबसे ज्यादा रोचक चीज़ यानि कि कॉमिकस। मझे याद  है कि कैसे मैं और मेरे भाई नई-नई कॉमिक्स पड़ने के लिए पागल से रहते थे। चम्पक, नंदन, चाचा चौधरी, फैंटम ,चंदा मामा, मोटू-पतलू , और भी न जाने  कितने नामों से कॉ मिक्स  आया  करती थीं उस वक़्त। जिन्हे पड़ने में हम इतने खो जाया करते थे कि समय कब कट जाता था पता ही नहीं चलता था। उस वक़्त भी वीडीओ गेम्स थे लेकिन कॉमिक्स हर बच्चे को आसानी से उपलब्ध होने वाली मनोरंजन की  सबसे लोकप्रिय चीज़ थी। बच्चो के अंदर रीडिंग हैबिट को डेवलप करने का ये एक बहुत ही सरल और रोचक  माध्यम हुआ करता था। टीवी पर आने वाले ढेरों कार्टून कैरेक्टर्स  की तरह ही कॉमिक्स के वो पात्र हमारे जीवन का हिस्सा बन जाते थे।. बच्चे उन पात्रों के लिए कितने दीवाने रहते थे।
                                        सच में इस सेटेलाइट चैनल्स और हाई फाई गेम्स के समय में कॉमिक्स का अस्तित्व पूरी तरह ख़त्म सा ही हो गया है। मैं कॉमिक्स के उन पात्रों को बहुत ही मिस करती हूँ, जो उस वक़्त मुझे बिलकुल सच्चे लगते थे। आज मैं बच्चो के लिए किताबें लेने बाज़ार निकलती हूँ तो बुक स्टॉल्स पर केवल कुछ गिनी चुनी ही कॉमिक्स नज़र आतीं हैं।  मनोरंजन के साधन जितने ही बढ़ते जा रहे हैं हमारे बच्चे उतने ही असंतुष्ट होते जा रहे हैं ,शायद बच्चो के अंदर के भोलेपन  को सहेजे रख कर उन्हें स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करने का कॉमिक्स से अच्छा जरिया और कोई हो ही नहीं सकता है। 

शनिवार, 4 जनवरी 2014

नेटवर्किंग कम्पनियों ने आजकल जो हमारे चारों तरफ जाल बिछाया हुआ है उसके उदहारण हमें आये  दिन देखने को मिल जाते हैं । यूँ तो आजकल कोई भी बिना मतलब के आपसे बात करेगा नहीं और अगर करेगा तो सावधान हो जाइयेगा ,या तो वो किसी मल्टीनेशनल कंपनी के महंगे उत्पाद आपको बेचना चाहता है या फिर किसी बैंक में सेल्स एड्वाइजर होगा । पहले तो आप उस व्यक्ति के मधुर व्यवहार के कायल हो जायेंगे लेकिन बाद में जब आप को पता चलेगा कि ये उसकी मार्केटिंग का हिस्सा है तो आप उससे पीछा छुड़ाने के बहाने ढूंढते फिरेंगे। मेरे साथ भी हाल ही में ऐसे कई वाक़ये हुए। जिनमें से एक तब का है जब मैं चंडीगढ़ में रहा करती थी , एक दिन सुबह जब मैं अपने बच्चों की  स्कूल बस के लिए इंतज़ार कर रही थी तो एक सुन्दर और सभ्रांत सी दिखने वाली महिला मुझे देख कर मुस्कराई , आमतौर पर मैं अजनबी लोगो से थोड़ा रिजर्व रहने की  कोशिश करती हूँ लेकिन चूंकि वह महिला मुझे भले घर कि लग रही थीं और मेरी ही उम्र की  थी तो जवाब में मैं भीं मुस्कुरा दी।  फिर अचानक ही एक दिन शाम के वक़्त वो अपने पति को लेकर मेरे घर आईं।  पता चला कि जिस तरह उनकी और मेरी मुलाकात हुई थी उसी तरह मेरे और उनके पति भी मिल चुके हैं ,उनका इस तरह का बेतकल्लुफ़ व्यहवहार पहले तो मुझे अजीब लगा लेकिन जब मुझे पता चला कि वे लोग भी यूपी  के हैं तो मुझे बहुत ख़ुशी हुई कि चलो अनजाने शहर में कोई तो अपना मिला । मैं मन ही मन खुश हो रही थी कि ऐसा नहीं है कि दुनिया में सभी लोग मतलब से दोस्ती करते हैं, अगर आप अच्छे हैं तो आप को भी आपके जैसा कोई न कोई मिल ही जायेगा। थोड़ी देर बातचीत करने के बाद वो पूछने लगीं कि मेरा बेटा इतना कमजोर क्यों है? फिर उन्होंने कुछ एनर्जी ड्रिंक्स के बारे में बताया जिन्हें पिलाने से बच्चों का वजन बढ़ जाता है।  मैंने आदत के अनुसार उनकी हाँ में हाँ मिला दी । फिर पता चला कि वे एक मल्टीनेशनल कम्पनी के लिए काम करती हैं। अब मेरी समझ में आ गया कि उनका हमसे बात करना, घुलना मिलना कुछ और नहीं बल्कि नेट्वर्किंग था। जी हाँ घर बैठे आसानी से पार्ट टाइम काम करके पैसा कमाने का नया तरीका । और फिर तो वो जैसे हमारे पीछे ही पड़  गई। आये दिन वो हमें अपने उत्पादों के फायदे बतातीं  और उन्हें खरीदने के लिए हमें समझाया करतीं ।और में उनसे पीछे छुड़ाने के बहाने सोचा करती।
यहाँ आगरा मेंभीमुझे दो तीन लोग ऐसे मिले जो पहली मुलक़ात में ही बहुत घुल मिल गए , उनसे मिल कर भी मुझे यही लगा कि वास्तव में दुनिया में सच्ची मित्रता अभी भी कायम है,लेकिन बाद में वे भी इन्हीं नेटवर्किंग कम्पनियों का हिस्सा निकले।