सोमवार, 20 जुलाई 2015

उसने समाधान की इच्छा से कमरे में रखी भगवान  की मूर्ती की ओर देखा ? अपने प्रश्नो का कुछ उत्तर न पाकर वो निराश हो गया।  ईश्वर मौन था। वह बैचेन हो उठा , ईश्वर से नाराज होकर वह कमरे मैं रखी किताबों को टटोलने लगा। यूँही पन्ने  पलटते हुए उसने एक पंक्ति लिखी देखी  'इच्छाओं को कम करो , दुःख स्वत: ही कम हो जायेंगे '। उसे उसके प्रश्नों का उत्तर मिल चुका था।  उसने मूर्ती की तरफ दुबारा देखा।  वह अब भी शांत थी..... 

सोमवार, 27 अप्रैल 2015

''कोई वस्तु यदि स्थिर है तो स्थिर ही रहेगी जब तक कि उस पर बाह्य बल का प्रयोग न किया जाये। 

 '' ''प्रत्येक क्रिया की समान एवं विपरीत प्रतिक्रिया होती है।''

क्या नेपाल त्रासदी के केस में हम नहीं देख रहे कि किस तरह न्यूटन के ये दोनों नियम लागू हो रहे हैं , प्रकति  स्थिर थी , शांत थी लेकिन हमारी अनावश्यक और अनुचित हस्तक्षेप के कारण उसे ये रौद्र रूप धारण करना पड़ा। प्राकतिक संसाधनो का अत्यधिक दोहन , वनों का काटना , शहरीकरण ,वन्य जीवों का ख़त्म होना यह सब  तरफ ही इशारा करते हैं कि कैसे हमने अनैतिक रूप से प्रकति का शोषण किया है। और अब प्रकति ने विरोधस्वरूप हमें इन प्राकतिक आपदाओं का सामना करने को मजबूर किया। अब हमें इसके दुष्परिणाम झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए। और केवल हमें ही नहीं मानव जाति की आने वाली पीढ़ियों को भी इसके लिए सचेत रहना होगा। 


शुक्रवार, 13 मार्च 2015


मुझे अपार्टमेंट कल्चर कभी भी पसंद नहीं आया ... मुझे फ्लेट्नुमा घर एक पिंजरे की तरह लगते है जहाँ से इंसान प्रकति को देख तो सकता है लेकिन छू नहीं सकता ...मेरे हिसाब से हरेक इंसान को कम से कम इतनी जगह तो मिलनी चाहिए कि वह एक बगीचा बना सके...कुछ पोधे उगा सके ...एक घना छायादार पेड़ जिसके नीचे वो सुकून से बैठ सके .....मिट्टी की गीली गीली खुशबू उसके दिमाग को तारो ताजा रखे .....जहाँ से उसे पक्षियों का चहचहाना ...कोयल का गाना सुनाई दे सके ... जहाँ से वह रोज़ सूर्य को निकलते और डूबते देख सके ...हवा के झोंको के ठन्डे स्पर्श को महसूस कर सके ..जो उसे हर पल प्रेरणा दे सकें ...और उसके थके हुए तन मन में फिर से स्फूर्ति भर सके .....



लेखकों ने , कवियों ने प्रेम को एक बहुत ही अद्भुत रूप में प्रस्तुत किया है ...हमेशा यही कहा गया है कि प्रेम ईश्वर का रूप है ...प्रेम से बढकर संसार में कुछ भी नहीं .. कुछ ने तो ये तक कहा है कि प्रेम कि तुलना में विवाह एक बहुत छोटा शब्द है ....प्रेम बंधन नहीं मानता , सीमाएं नहीं मानता ... यह शरीरों का नहीं आत्माओं का मिलन है ... लेकिन मैंने अपने जीवन में जब भी देखा है तो प्रेम को एक आकर्षण से ज्यादा कुछ नहीं पाया ...प्रेम को सदा मैंने एक भूल भुलैया जैसा पाया ....प्रेम में हम सर्वश्रेष्ठ दिखना चाहते हैं ...सर्वश्रेष्ठ होना चाहते हैं ...प्रेम कल्पनाओ की उड़ान है यहाँ कुछ भी भोतिक नहीं है हम जो नहीं हैं वो होना चाहते हैं सामने वाले कि नज़र से खुद को देखना चाहते हैं ...चाहें उसके लिए हमें स्वयं को बदलना ही क्यूँ न पड़े ... जो एक मुख्य बात मैंने महसूस कि है वह यह है कि प्रेम कभी भी सहज और सरल नहीं हो सकता यदि हमें उसके लिए स्वयं को बदलना पड़े ... हम जैसे हैं यदि वैसे ही सामने वाला हमें स्वीकार करना चाहे तो वह प्रेम है .. और यदि हमें थोडा भी आवरण  पड़े या खुद को बदलना पड़े तो फिर वह प्रेम नहीं हो सकता ....
विवाह की  यही बात मुझे प्रभावित करती है कि यह व्यक्ति को वो होने कि स्वतंत्रता देता है जो वह है ..... जो वह होना चाहे... मैंने बहुत से प्रेमी जोड़ो को देखा जो विवाहित भी थे और विवाह नहीं भी कर पाए ... तो पाया कि वे उन जोड़ो से किसी भी रूप में भिन्न नहीं थे जिनका विवाह घर वालों की मर्जी से हुआ था ...प्रेम को मैंने जितना भी समझा है वह एक म्रग्मारीचिका से ज्यादा कुछ नहीं लगी जो जब तक हमसे दूर रहती है हमें लुभाती है लेकिन उसे प्राप्त कर लेने पर उसका आकर्षण स्वत: ही ख़त्म हो जाता है ... जबकि एक सफल विवाह में हम शुरू से ही इस सत्य को स्वीकार करके चलते है कि जो जैसा है हमे वैसा ही स्वीकार है और यदि ऐसा नहीं है तो फिर विवाह भी असफल हो जाता है ...एक सफल दाम्पत्य जीवन के लिए आवश्यक है कि त्रुटियों और कमियों को भली भांति स्वीकार किया जाये ...और यदि एक बार ऐसा होता है तो फिर जिंदगी एक खुशनुमा  सफर बन जाती है और हमसफ़र का साथ आपकी सबसे बड़ी ताकत। 

वह बहुत तेज़ी से ऑल इंडिया मेडिकल की सीडियां चढ़ रही थी ...उसकी गोद में उसका 7 -8 साल का बेटा  था ... उसका पल्लू पकड़े हुए पीछे पीछे उसकी 5 साल कि बेटी चल रही थी ...जो किसी भी सूरत में अपनी माँ से अलग नहीं रहना चाहती थी ...यह पहली बार नहीं था जब ये लोग देश के इस जाने माने अस्पताल में आए थे ...हर छह महीने बाद इन लोगो को यहाँ आना होता था ... २ साल कि उम्र में बुखार आने पर उसके बेटे के पैर में पोलिओ हो गया था ...अपने स्वस्थ बच्चे को अचानक अपंग होते देख कर कौन सी माँ अपना धेर्य नहीं खोएगी ....उस पर भी घरवालों का ये ताना कि उसकी ही लापरवाही से ये सब हुआ है ...काफी इलाज के बावजूद भी जब बच्चे के पैर में कोई सुधार नहीं हुआ तो बच्चे को दिल्ली ले जाकर इलाज करने का निर्णय लिया गया ...वहां अस्पताल में जब वह पोलियो से ग्रस्त अन्य बच्चों को देखती तो उसका दिल रो पड़ता ...उसे लगता कहीं उसका बेटा जीवन भर के लिए अपंग न हो जाये ...बच्चे का एक पैर अपनी चलने की शक्ति खो चुका था ...वह भगवान से प्रार्थना करती, ‘ हे ईश्वर , आप मेरे पैरों कि शक्ति मेरे बेटे के पैरों में डाल दो , चाहों तो मुझे अपंग कर दो लेकिन मेरे बेटे को पूरी तरह स्वस्थ कर दो ‘....वह यूँही बार बार बार बच्चे को लेकर दिल्ली आती और डॉक्टरों से उसका चेकअप कराती ...डोक्टरों ने सुझाव दिया कि सही खानपान , मालिश और चमड़े के बने हुए खांचे में पैर को रख कर चलने से शायद कुछ फर्क आ जाये ...बस वह बच्चे की देख रेख में जुट गई ...वह दिन रात बच्चे का ख्याल रखती और भगवान से उसके ठीक होने की प्रार्थना करती .... यूँ तो उसके दो बड़े बेटे और एक छोटी बेटी भी थी लेकिन उसका ध्यान पूरी तरह उस बीमार बच्चे में ही लगा रहता ... अन्य बच्चे दादा –दादी कि देख रेख में रहते ...धीरे धीरे बच्चा बड़ा होने लगा और उसके पैर में सुधार आने लगा ...वह फिर भी संतुष्ट नहीं थी ...वह अपने बेटे को पूरी तरह ठीक करना चाहती थी ...वह उसे सामान्य बच्चों की तरह दौड़ते – भागते देखना चाहती थी ....तब किसी ने उन्हें बताया कि तमिलनाडु के कोयाम्बत्टूर शहरमें एक जगह है जहाँ इस बीमारी का इलाज किया जाता है ...वह अपने पति और बेटे को लेकर वहां चली गई ...वह एक बड़ा आयुर्वेदिक चिकित्सालय था जहाँ विशेष प्रकार की आयुर्वेदिक दवाइयों और तेलों की  मालिश से उस बच्चे का इलाज किया जाता था ...वह अपने बेटे को लेकर कई बार वहां गई ...आखिरकार भगवन ने उसकी प्रार्थना सुनी अब बच्चा ठीक से चलने फिरने लगा था ... हालाँकि उसके पैर में अभी थोड़ी कमजोरी रह गई थी ...लेकिन अब वह बिना किसी मदद के स्कूल जाने लगा था ...वह अब बहुत खुश थी ....आखिरकार उसकी मेहनत रंग लाई थी ....समय का चक्र चलता जा रहा था बेटा अब 14 -15 वर्ष का हो गया था .....वह हमेशा की तरह घर के सदस्यों कि देखभाल करती रहती थी ... सास ससुर की  देखभाल , पति का और बच्चो का ख्याल रखना यही उसका जीवन था ...लेकिन ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था ...उसने ईश्वर से अपने बेटे के ठीक होने के बदले जो माँगा था वही हुआ ...एक रात अचानक जब वह सो रही थी और नींद खुलने पर जब उसने अपने पैरों पर खड़ा होने चाहा तो उसका बायां पैर अचानक लड़खड़ा गया ...सहारा लेने के लिए जैसे ही उसने अपना बायाँ हाथ बढाया तो उसने पाया कि वह भी अशक्त हो चुका था ...उसके शरीर का बायां भाग लकवे का शिकार हो गया था ...वह सदा के लिए अपंग हो गई थी ....लेकिन उसे ईश्वर से कोई शिकायत नहीं थी वह खुश थी क्यूंकि उसका बेटा अब अपने पैरों पर चलने लगा था ... दौड़ने भागने लगा था ...उसकी तपस्या का फल उसको मिल गया था ...वह केवल एक माँ थी और कुछ भी नहीं ....

आज बहुत दिन बाद ब्लोगर पर जाकर अपना ब्लॉग खोला ..बिलकुल वैसा ही लगा जैसे किसी पुराने दोस्त से मिलने के बाद लगता है ..या जैसे कोई लड़की ससुराल से अपने मायके पहुँचने पर महसूस करती है ... असल में पहले हम सीधा ब्लॉगर पर ही लिखते थे , तब हमारे लैपटॉप पर हिंदी फॉण्ट नहीं था ... अब इस नए लैपटॉप पर गूगल इनपुट टूल मिल गया है तो बिना इंटरनेट कनेक्शन के भी सीधा वर्ड पर धराधड लिखते चले जाओ और जब फुर्सत मिले तो उसे ब्लोगर पर पोस्ट कर दो .....लेकिन इसके बावजूद भी लिखना नियमित रूप से नहीं हो पा रहा है ...व्यस्तता ही इतनी रहती है ....कितनी अजीब सी बात है न कि जो काम हमें सबसे अच्छा लगता है उसी के लिए आप को वक़्त नहीं मिल पता है और जो काम आपको बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता जैसे घर संभालना , खाना पकाना , वगेरह वगेरह , उसको आप को रोज ही करना पड़ता है ...खैर जी तो करता है अपने दिल्ली के वर्किंग डेज वाले दिनों कि तरह एक कमरा किराये पर ले लिया जाये जिसमें ज्यादा सामान न हो ...और खाने के लिए दोनों टाइम का डब्बा लगा लिए जाये ...बाकि का बचा हुआ सारा वक़्त लिखने पढने में लगा दिया जाये ...सुबह कितना भी जल्दी उठ जायें और रात को कितना भी देर से सोये लेकिन अपने लिए एक घंटा नहीं निकाल पाते ...पता नहीं वो कैसे लोग होते हैं जो दोपहर भर बिस्तर पर पड़े पड़े ऊँघते रहते हैं ....मुझे तो अगर थोडी भी फुर्सत मिल जाये तो जाने क्या क्या कर लूं ....दिल ही दिल में बहुत सारे प्लान बनाये फिर करते हैं लेकिन फुर्सत मिलती ही नहीं ....शायद मेरा टाइम मेनेजमेंट बहुत ख़राब है ....जो भी है एक बार फिर कोशिश करेंगे अपनी उलझी हुई जिन्दगी को कुछ सुलझाने की और अपने लिए थोड़ा वक़्त निकलने की .....  

रविवार, 25 जनवरी 2015

आज कल लिखना लगभग ना के बराबर हो रहा है।  लिखने लिए वैसे भी बहुत सा खाली समय चाहिए होता है जो आज कल नहीं मिल पा रहा है।  वैसे भी एक वक़्त में या तो दिमाग ही सक्रिय हो सकता है या फिर दैनिक कार्य पूरे किये जा सकते हैं। इसका ये मतलब बिलकुल नहीं है कि हमारे रोजाना की दिनचर्या में दिमाग की भागीदारी नहीं होती। बिलकुल होती है लेकिन फिर  भी रोज़मर्रा के काम कुछ यांत्रिक सी प्रक्रिया में होते रहते हैं जिनके बीच में दिमाग शून्य सा बना रहता है। हाँ लेकिन बात जब हमारी पसंद के कार्यो की होती है तो एक आत्मसंतुष्टि का अनुभव होता है। फिर चाहें वो आश्रम के बच्चों की ईवनिंग क्लास हो जिसे मैंने अपनी दैनिक दिनचर्या में एक अनिवार्य कार्य के रूप में शामिल कर लिया है। दिन भर में किये गए सभी कार्यों में ये एक घंटा मन को प्रसन्न कर जाता है। हर दिन में इंतजार करती हूँ इसका। आत्मसंतुष्टि क्या होती है इसका अनुभव मुझे अब हुआ है। पूरे जोश के साथ मेरी टीम काम करती है। ये बिलकुल वैसा ही अनुभव है जैसा मुझे एक कविता लिखने पर या अपनी पसंद का कोई और कार्य करने पर होता है। इस सबके बीच यदि लिखना पढ़ना कुछ काम हो भी जाए तो कोई बात नहीं।  जीवन हर मोड़ ओर नए अनुभव करता है , नई राहें दिखाता है। क्या पता किस राह पर चलते चलते हमें अपनी खुशियों की चाबी मिल जाये। 

शनिवार, 10 जनवरी 2015

आग में तप कर ही सोना निखरता है। कहने को तो बहुत साधारण सी कहावत है लेकिन इसका मर्म समझे तो पता चलेगा कि यह कितना सत्य है। जीवन तब तक बहुत सरल लगता है जब तक हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए किसी और पर निर्भर होते हैं। लेकिन जीवन की वास्तविकता तब सामने आती है जब हम अपने कम्फर्ट लेवल से निकल कर खुद को प्रूव करने के प्रयास करने लगते हैं। बिना प्रयास करे ही यदि सब कुछ मिल जाये इससे अच्छा और क्या। लेकिन उस अवस्था में हम स्वयं से अपरिचित होते हैं। अपनी सही क्षमताओं का आकलन तो हम तभी कर पाते हैं जब हम कठिन समय से गुज़रते हैं। ठीक उसी वक़्त जब सभी अपने साथ छोड़ देते हैं और हमारे सामने जीवन एक चुनौती बन कर खड़ा हो जाता है। ऐसी अवस्था में कुछ लोग तो हिम्मत हार जाते है और कुछ लोग अपनी पूरी सामर्थ्य को बटोर कर परिस्थितियों से डट कर सामना करते हैं। यही वो वक़्त है जब हम अपने वास्तविक स्वरूपको पहचान पाते हैं और हमारा साक्षात्कार  हमारे व्यक्तित्व के कुछ अनछुए पहलुओं से होता है । यदि इस समय हम पूरी ऊर्जा और उत्साह से स्वयं को परिस्थितियों के अनुकूूल ढाल लेते हैं तो निश्चित रूप से हम कठिन से कठिन समय को भी आसानी से गुजार देते हैं। और हमारा जीवन ठीक उसी तरह संवर जाता है जैसे आग में तप कर सोना निखर जाता है। 
हम जीवन को तरीकों से जीते हैं..... पहला तरीका है भ्रम में जीने का और दूसरा तरीका है वास्तविकता में जीने का … यदि मनुष्य भ्रम में जीता है तो वह माया है और यदि वास्तविकता में जीता है तो वह सन्यासी है.…  दोनों ही परिस्थितियों में हम दासता का जीवन जीते हैं … यहाँ ये समझना अनिवार्य हो जाता है कि दोनों ही परिस्थितियों में हम बाध्य होते हैं दास बनने को फिर चाहें भ्रम के हों या वास्तविकता के …तो मनुष्य की जो मूल मानसिक अवस्था है वह दास बने रहने की है … वह चाहे स्वयं को स्वामी समझे लेकिन वास्तव में तो वह दास ही होता है..... जब उसके पास परिवार होता है तो वह अपनी पत्नि, बच्चों और परिवारजनो का दास होता है … देश का राष्ट्रपति भी भले ही देश का उच्चतम व्यक्ति माना जाता हो लेकिन वास्तव में तो वह भी दास ही होता है... हम सब दास हैं अपने विचारों के, अपनी नियत जीवन शैली के …ज्ञान इसी दासता से हमें मुक्त करता है …वह न सिर्फ हमारे विचारों को मुक्त करता है बल्कि हमारे वास्तविक स्वरुप से भी हमारा साक्षात्कार कराता है …

मंगलवार, 6 जनवरी 2015

falsafa -e-jindgi: परालौकिक विषयों पर बहुत खोज की गई है और बहुत से दा...

falsafa -e-jindgi: परालौकिक विषयों पर बहुत खोज की गई है और बहुत से दा...: परालौकिक विषयों पर बहुत खोज की गई है और बहुत से दावे भी किये जा चुके है। लेकिन मृत्यु के बाद मनुष्य कहाँ जाता है ,आत्मा कहाँ विचरण करती है...

falsafa -e-jindgi: मैं हमेशा से ही भाग्यवादी रही हूँ। मेरा मानना है क...

falsafa -e-jindgi: मैं हमेशा से ही भाग्यवादी रही हूँ। मेरा मानना है क...: मैं हमेशा से ही भाग्यवादी रही हूँ। मेरा मानना है कि जीवन में जो भी घटित होता है वह पूर्वनिर्धारित होता है। फिर उसे हम किसी भी सूरत में परिव...

falsafa -e-jindgi: उसकी आँखों की चमक ने मुझे हैरान कर दिया। यह वही ते...

falsafa -e-jindgi: उसकी आँखों की चमक ने मुझे हैरान कर दिया। यह वही ते...: उसकी आँखों की चमक ने मुझे हैरान कर दिया। यह वही तेज है जो किसी विदुषी के चेहरे पर होता है। साधारण से कपड़ों में भी उसकी सुंदरता नज़र आ रही ...

falsafa -e-jindgi:                        मोनिका के बारे में मेरी प...

falsafa -e-jindgi:                       

मोनिका के बारे में मेरी प...
:                        मोनिका के बारे में मेरी पोस्ट के बाद बहुत से मित्रों ने मेरे इनबॉक्स में आकर उसके बारे में और जानना चाहा। तो लीज...

falsafa -e-jindgi: कुल चौदह साल की थी जब पहली बार ओशो को पढ़ा। और उन्...

falsafa -e-jindgi:
कुल चौदह साल की थी जब पहली बार ओशो को पढ़ा। और उन्...
: कुल चौदह साल की थी जब पहली बार ओशो को पढ़ा। और उन्नीस साल की उम्र में उनको समझा , जब बड़े भाई को एक एक्सीडेंट में खो बैठी। तब उन दिनों लग...

falsafa -e-jindgi: वृन्दावन में हमारे घर के बाहर एक साधु बाबा बैठे रह...

falsafa -e-jindgi: वृन्दावन में हमारे घर के बाहर एक साधु बाबा बैठे रह...: वृन्दावन में हमारे घर के बाहर एक साधु बाबा बैठे रहते थे।  वो हमेशा एक वाक्य को दोहराते रहते थे।  ''  घट रही है , बढ़ रही है'&#3...
वृन्दावन में हमारे घर के बाहर एक साधु बाबा बैठे रहते थे।  वो हमेशा एक वाक्य को दोहराते रहते थे।  ''  घट रही है , बढ़ रही है'' । लोग उनसे पूछते थे कि  बाबा क्या घट रही है और बढ़ रही है तो वे बताते कि ''उमरिया घट रही है, और तृष्णा बढ़ रही है ''। सच ही तो है जैसे जैसे हमारी उम्र बढ़ती जाती है , हम परिपक्व होते जाते  है हमारी जीवन के प्रति तृष्णा भी बढ़ती जाती है। इसी तृष्णा का नाम है माया। जो हमें अपने जाल में उलझाती जाती है और हम उलझते जाते हैं। जीवन पूर्वनिर्धारित है। ब्रह्माण्ड का एक -एक कण  अपनी पूर्व निर्धारित आयु के अनुसार जीता है।  समय किसी के रोके से नहीं रुकता है। जीवन एक उत्सव है  हर्षोल्लास के साथ जियें।  मृत्यु से पहले ही उसका शोक क्या मनाना। वह तो जब आएगी तब आएगी ही। लेकिन जरूरी बात है कि जीवन जीने लायक बनाएं। व्यर्थ को हटाएं और जो आवश्यक है उसे सहेजें। जीवन  की परिपूर्णता उपलब्धियों पर निर्भर नहीं करती बल्कि इस बात में है कि उसे सही तरह से जियें।  या वैसे जियें जैसे हमने हमेशा सोचा था।  हम सब इन बंधनों में स्वयं बंधते हैं और फिर खुद को घिरा हुआ महसूस करते हैं। और एक दिन हम स्वयं से ही बहुत दूर हो जाते हैं और चाह कर भी जीवन को अपने हिसाब से जी नही पाते। तो जरूरी है कि समय रहते हम जीवन को व्यवस्थित करना सीख लें। और एक एक पल को वैसे जियें जैसी जीने की हमने कल्पना की हो।  आप अपने जीवन में खुद ड्राइविंग सीट पर बैठें और स्टेयरिंग अपने हाथों में रखें। तभी जीवन की गाड़ी सही गति से चलेगी और आप अपनी मंजिल पर पहुंचेंगे। 
हम निराश होते हैं क्योंकि हमारी इच्छाएं अतृप्त होती हैं, हम ऐसे में खुद को दोष देते हैं , औरों को भी। हम स्वयं से भी भागते फिरते  है और दूसरों से भी।  दोष केवल उन इच्छाओं का है और कोई बात नहीं।  तो फिर हम उन इच्छाओं को ही क्यों नहीं ख़त्म कर देते जो इन  सारी परेशानियों को जन्म देती हैं। इच्छाएँ नहीं होंगी तो कभी निराशा भी नहीं होगी। जीवन जैसा है उसे वैसे ही स्वीकार करें। जो है उसका आनंद लें।  जो नहीं है उसके बारें  में सोच कर समय व्यर्थ न करें।   हर एक गुज़रता हुआ पल कीमती है।  हर एक पल को एक अनमोल धरोहर समझें और उसे सरलता और सहजता से गुज़ारें तभी आनंदमय रह सकेंगे। ख़ुशी हमारे साथ लुका  छिपी का खेल खेलती है।  हम जब तक उसके पीछे भागेंगे वह हमसे दूर भागेगी। और जब  हम उसे भूल कर स्वयं पर ध्यान केंद्रित करने लगेंगे तो वह अचानक से हमारे सामने आकर खड़ी हो जाएगी।  उसके पीछे न भागें। स्वयं में मगन रहे वह खुद आपके पीछे चली आएगी। 

सोमवार, 5 जनवरी 2015


कुल चौदह साल की थी जब पहली बार ओशो को पढ़ा। और उन्नीस साल की उम्र में उनको समझा , जब बड़े भाई को एक एक्सीडेंट में खो बैठी। तब उन दिनों लगता था कि भाई के जाने के बाद दुनिया ख़त्म हो गई, तब सुसाइड करने का विचार बार बार मन में आता था। फिर एक दिन ओशो की लिखी कुछ पंक्तियाँ पढ़ीं Don't commit an ordinary suicide , एक  सन्यासी  बन  जाओ और  तुम्हे  आत्महत्या  करने  की  ज़रुरत  नहीं  पड़ेगी , क्योंकि  संन्यास   लेने  से  बढ़  कर  कोई  आत्महत्या  नही  है और समझ आ गया कि आर्डिनरी सुसाइड करने से कुछ खास नहीं होने वाला। ये एकांत में रहने की आदत भी तब ही पड़ी। बस तभी से अपने अकेलेपन से घबराना छोड़ दिया। मैं एक जिज्ञासू थी। जो जहाँ से भी मिलता गया पढ़ती गई और उसे अपनी समझ के हिसाब से आकार देने लगी। किताबें उस वक़्त मेरा सबसे बड़ा सहारा थीं और मानसिक संबल भी। कुछ पारिवारिक परिस्तिथियाँ थीं और कुछ मेरा रुझान कि मृत्यु को विषय बना कर उस पर शोध करती रही । फिर समय बदला और परिस्थितियां भी और दिमाग फिर से बाहरी दुनिया की भूल भुलैया में खो गया।

रविवार, 4 जनवरी 2015

                      

मोनिका के बारे में मेरी पोस्ट के बाद बहुत से मित्रों ने मेरे इनबॉक्स में आकर उसके बारे में और जानना चाहा। तो लीजिये यह है मोनिका की तस्वीर। है न बहुत प्यारी। इतनी शिक्षा लेने के बाद वह और आगे पढ़ना चाहती है। वो मुझसे बहुत कुछ कहना चाहती थी। उसकी आँखों में ढेरों सपने थे। अपने अतीत के बारे में तो वो कुछ नहीं कर सकती थी लेकिन अपने भविष्य को लेकर वो बेहद सजग थी। मैंने बातों ही बातों में उससे कहा कि मुझे लगता है कि उसका भविष्य बहुत उज्जवल है तो उसने अपनी बड़ी बड़ी आखों को फैला कर पुछा सच दीदी, मैंने जवाब दिया हाँ पगली क्यूंकि तू ईश्वर की संतान है । यूँ तो वो अब मुझसे रोज़ मिलती है लेकिन तफ़सील से बैठ कर बातें बहुत कम हो पाती हैं। पिछली मुलाकात में उसने मुझे बताया कि कैसे इंटरमीडियट पास करने के बाद जब उसने कॉलेज में दाखिला लेना चाहा तो आश्रम के संचालकों की और से उसे विरोध का सामना करना पड़ा। आगरा कॉलेज के प्रोफेसरों की मदद से पहले उसने ग्रेजुएशन किया और फिर पीजी। आमतौर पर होता यही है कि आश्रम की लड़कियों को स्कूली शिक्षा दिलाने के बाद उनकी शादी कर दी जाती है। मोनिका को इसी बात का डर था। इतना पढ़ लिख लेने के बाद वह पहले आत्मनिर्भर होना चाहती है। मैंने उसके फैसले का समर्थन किया और उससे बस ये ही कहा कि वह अपने भाग्य की स्वयं निर्माता है, अब तक की लड़ाई उसने खुद लड़ी है और आगे भी अपने फैसले उसे खुद ही लेने चाहिए। मैं चाहती हूँ उसे एक अच्छा जीवन साथी मिले लेकिन सब से पहले जरूरी है कि वह आत्मनिर्भर हो जाये, और जीवन को अपनी इच्छा के मुताबिक जिए। क्योंकि मैं जानती हूँ कि ईश्वर हर कदम पर उसके साथ है.……

शुक्रवार, 2 जनवरी 2015

उसकी आँखों की चमक ने मुझे हैरान कर दिया। यह वही तेज है जो किसी विदुषी के चेहरे पर होता है। साधारण से कपड़ों में भी उसकी सुंदरता नज़र आ रही थी। सहसा ही मुझे आभास हो गया कि बचपन से अब तक जिस विद्या की देवी माँ सरस्वती को पूजती आई हूँ उसका वास्तव में अस्तित्व है। लोग सही कहते हैं कि विद्या उसी को मिलती है जिस पर माँ सरस्वती का आशीर्वाद होता है। और आज मोनिका से मिल कर मुझे ऐसा ही लगा। लेकिन यह मुझे अनाथाश्रम के इस कमरे में देखने को मिलेगा इसकी उम्मीद कम थी मुझे। जूलॉजी से एमएससी, बी-एड और अब सिविल सर्विसेज की तैयारी। बस आगे पढ़ाई और प्रतियोगी परीक्षाओं पर होने वाले खर्चे को लेकर थोड़ी असमंजस थी। उसके कमरे में व्यवस्थित रूप से रखी मोटी-मोटी किताबें, करीने से लगे बिस्तर ,पूजा का कोना ,कपड़े, सब कुछ उस के रुचिपूर्ण होने का बयां कर रहे थे। मैं हमेशा की तरह आश्रम के बच्चों की कैरिअर काउंसलिंग कर रही थी। जिन-जिन को मुझसे शिक्षा सम्बन्धी जानकारी लेनी थी वे आकर मुझसे मिल कर जा रहे थे। और जिन को कोचिंग आदि लेनी होती है मुझसे मेरे ऑफिस आकर संपर्क कर लेते हैं। मुझे मालूम था कि यहाँ से बहुत सी बच्चियाँ कॉलेज भी जाती हैं। ज्यादातर बच्चियाँ यहाँ स्कूल के बाद पढ़ाई छोड़ देती हैं ,बहुत कम लड़कियाँ कॉलेज पढ़ाई पूरी कर पाती हैं। और सही भी है बिना किसी सहयोग और मार्गदर्शन के, बिना माता-पिता की छत्रछाँव के वह इतना पढ़ लेती हैं वही बहुत है। मोनिका के बारे में मैंने पहले भी सुना था। लेकिन संयोग की बाद है कि पहले कभी उससे मुलाकात नहीं हो पाई थी। आज आश्रम के कमरों से होकर गुज़रते वक़्त मैंने धीरे से उसके कमरे में झांक कर देखा तो मुझे एक अलग ही दुनिया नज़र आई। अनाथाश्रम की एक मेज पर रखीं वो विज्ञान जैसे जटिल विषयों कि किताबों को देखकर मेरी आँखों में आँसू भर आए। मैंने किसी तरह खुद को संभाला। मेरी आँखों के आगे मेरे छात्र जीवन के वो साल घूमने लगे। जब एग्जाम  दिनों में हाथ में दूध का गिलास लेकर मेरी माँ मेरे आगे-पीछे डोलती थी। और मैं नखरे दिखती हुयी पढ़ाई में लगी रहती थी। पापा मेरे परीक्षा में सही समय पर पहुँचने को लेकर परेशान रहते थे। तमाम सुख सुविधाओं में रह कर मैंने पढ़ाई पूरी करी। मेरी आँखों के आगे वो सब दृश्य घूमने लगे जिनमें मैंने धनाढ्य परिवारों के लोगों को उनके पढ़ाई में कमज़ोर बच्चो के बारे में चिंतित होते देखा था। और आज मोनिका से मिलकर मुझे लगा कि जिन कठिन परिस्थितियों में रह कर उसने इतनी उच्च शिक्षा पाई है वह जरूर किसी उपलब्धि से कम नहीं है। उसके प्रतियोगी परीक्षाओं की समस्या का मैंने समाधान कर दिया लेकिन उससे जिंदगी का बहुत बड़ा सबक ले लिया।