सोमवार, 5 जनवरी 2015


कुल चौदह साल की थी जब पहली बार ओशो को पढ़ा। और उन्नीस साल की उम्र में उनको समझा , जब बड़े भाई को एक एक्सीडेंट में खो बैठी। तब उन दिनों लगता था कि भाई के जाने के बाद दुनिया ख़त्म हो गई, तब सुसाइड करने का विचार बार बार मन में आता था। फिर एक दिन ओशो की लिखी कुछ पंक्तियाँ पढ़ीं Don't commit an ordinary suicide , एक  सन्यासी  बन  जाओ और  तुम्हे  आत्महत्या  करने  की  ज़रुरत  नहीं  पड़ेगी , क्योंकि  संन्यास   लेने  से  बढ़  कर  कोई  आत्महत्या  नही  है और समझ आ गया कि आर्डिनरी सुसाइड करने से कुछ खास नहीं होने वाला। ये एकांत में रहने की आदत भी तब ही पड़ी। बस तभी से अपने अकेलेपन से घबराना छोड़ दिया। मैं एक जिज्ञासू थी। जो जहाँ से भी मिलता गया पढ़ती गई और उसे अपनी समझ के हिसाब से आकार देने लगी। किताबें उस वक़्त मेरा सबसे बड़ा सहारा थीं और मानसिक संबल भी। कुछ पारिवारिक परिस्तिथियाँ थीं और कुछ मेरा रुझान कि मृत्यु को विषय बना कर उस पर शोध करती रही । फिर समय बदला और परिस्थितियां भी और दिमाग फिर से बाहरी दुनिया की भूल भुलैया में खो गया।

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