गुरुवार, 14 सितंबर 2017

किसी अपने को खोने का दर्द वही जान सकता है जिसने कभी किसी अपने को खोया हो...संगीता गिरीश जी की उनके पति मेजर अक्षय गिरीश कुमार के लिए लिखी हुई उस Facebook पोस्ट को पूरा पढ़ा तो आंखें नम हो जाती हैं ...संगीता गिरीश ने नगरोटा में शहीद अपने पति मेजर अक्षय गिरीश के बारे में एक पोस्ट लिखी है ..एक एक शब्द दिल पर चोट करता है ...इनके छोटे से सुखी परिवार की तस्वीरें किसी को भी हिला कर रख देंगी .. संगीता गिरीश की ये Facebook पोस्ट शहीदों के परिवारों के उस दर्द को बयां करती है जिन्होंने देश की खातिर किसी अपने को खो दिया  ...अपनी फेसबुक पोस्ट में संगीता गिरीश ने अपने पति मेजर गिरीश अक्षय कुमार के साथ पहली मुलाकात से लेकर उनकी मौत के दिन तक का पूरा वर्णन लिखा है ..दोनों ने किस तरह अपनी खुशियों का संसार बसाया ...परिवार के मना करने पर भी संगीता मेजर के साथ उनकी उस पोस्टिंग पर आई जहां आकर उन्होंने मेजर को हमेशा के लिए खो दिया.. जो एक पल को भी एक दूसरे से अलग नहीं रह सकते थे उन्हें मृत्यु ने सदा के लिए अलग कर दिया ... मेरी यह पोस्ट केवल संगीता गिरीश को सैल्यूट देने के लिए है.. उस वीर शहीद की पत्नी के प्रति मेरी संवेदनाएं व्यक्त करने के लिए है जो कठिन परिस्थितियों में अंतिम दिनों तक पति के साथ रहीं... क्योंकि वह पोस्ट हटा दी गई है इसलिए यहां मैं केवल एक अंश शेयर कर रही हूं जो किसी के भी दिल को झकझोर देने के लिए और हमें यह बताने के लिए काफी है कि देश की खातिर अपनी जान न्यौछावर करने वाले शहीदों की पत्नियों की  क्या मानसिक अवस्था होती है ...क्योंकि इनसे बेखबर हम सब बड़ी-बड़ी बातें करते रहते हैं इस सत्य से बिल्कुल अनभिज्ञ कि देश की सुरक्षा के लिए कितने बलिदान दिए जाते हैं।.                                
            It was 2009. The first time he proposed, it didn’t happen the way he had planned. I was visiting him in Chandigarh with a friend. We drove to Shimla but there was a curfew there. The restaurant he had booked had closed early and he had forgotten to get the ring. So he went down on one knee with a red pen drive that he had in his pocket! In 2011, we got married and I shifted to Pune. Two years later, Naina was born.

He would be gone for long periods for his professional assignments. Since my daughter was young, our families suggested that I come back to Bangalore. But I stayed on. I loved the world we had created and didn't want to leave it. Life was an adventure with him. From going to meet him at 14000 feet with Naina to sky diving as a family, we did it all.

In 2016, he got posted to Nagrota. We were staying in the officer’s mess as our house was not yet allotted. On November 29th, we suddenly woke up at 5:30 am to the sound of gunshots. We thought it was training but there had not been any intimation. Soon even grenades went off. At around 5:45am, a junior came in to tell him that militants had taken the artillery regiment as hostage and he’d have to change to combat clothing. The last thing he said to me was “you must write about this.”

All the ladies and children were put in a room. Sentries were stationed outside the room and we could hear constant firing. I sent a text to my mother-in-law and a conversation continued between her, my sister-in-law and me as the morning wore on.  At 8:09 am, he texted us on the group saying he was in the firefight. Around 8:30 am, we were shifted to a safer place. We were still in our pyjamas and chappals.

The day wore on and there was no news. I started getting jittery and had a sinking feeling. At 11:30 am, I could not help myself and made a call. One of his team members picked up the phone and said “Major Akshay has gone to a different location”.  Around 6:15 pm, his commanding officer and some other officers came to meet me. He said “Ma'am we have lost Akshay. He was martyred around 8:30 am.” My world collapsed. I was inconsolable. I wish I had texted him. I wish I had hugged him goodbye. I wish I had told him I loved him one last time. But we never expect things to go wrong. I sobbed like a baby, like my soul was being ripped apart. Two other soldiers were martyred but they saved the women, children and the men who were held hostage.

I got his uniforms, clothes and all the stuff we collected over the years in a truck. I tried hard to fight back my tears. I haven't washed his regimental jacket and when I miss him a lot, I wear it. It still smells of him.
At first, it was difficult to explain to Naina what had happened but now her papa is a star in the sky. Today, I have set up my own place with the things we had collected. He is there alive and speaking to us through the pictures and the memories we created. We smile through our tears because we know that’s what he would have wanted us to do. Like they say, if you haven't felt your soul being torn apart, you haven't really loved with all you heart. Though it hurts, I will always love him.
Sangeeta and Naina Akshay Girish
कभी गिद्ध को देखा है? आकाश में हजारों फुट ऊँचा उड़ने की क्षमता,  शिकार को दूर से देख लेने वाली तेज़ आँखें । लेकिन उसकी इन सब खूबियों का उपयोग क्या है ? एक शव । उसकी सारी क्षमताओं का उपयोग केवल एक निर्जीव शिकार की खोज करना और अपना पेट भरना। बस केवल यही? बिल्कुल इसी प्रकार हम भी ज्ञानी, बुद्धिजीवी, जाग्रत लेकिन हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है,  इंद्रियों की तृप्ति ?  हम अपने स्पेस शिपों में बैठ कर  ब्रह्मांड में कितना भी ऊपर घूम आएँ लेकिन क्या फायदा? Sense gratification that's all?? इसका मतलब ये सारी जद्दोजहद, ये खोज, ये ज्ञान केवल भौतिक स्तर तक ही सीमित है।और कुछ भी नहीं।(ThingstoPonder#)

सोमवार, 11 सितंबर 2017

मेरे बच्चे धर्म के विषय में अक्सर उत्सुक रहते हैं मम्मा गणेश चतुर्थी क्यों ?नाग पंचमी क्यों ? हनुमान जी का मुख वानररूप में क्यों हैं ...गणेशजी गजराज के रूप में क्यों है ..हमारे सभी देवी-देवता अधिकांशत: पशु पक्षियों का रूप क्यों धारण किए हुए हैं ..चूहे को मूषकराज नाग को शेषनाग.. वरुण को जटायु.. बैल को नंदी ..आखिर ऐसा क्यों है ..बच्चों को इसका महत्व बताना बहुत जरूरी है  जब तक हम बच्चों की जिज्ञासा शांत नहीं करेंगे तब तक बच्चों की धर्म में रुचि जागृत नहीं होगी ...मैं जब छोटी थी तो गीता प्रेस की प्रकाशित किताबें पढ़ती थी  ..दादी मां और नानी मां की कहानियां भी सुनती थी.. मेरे बच्चों को यह सब नहीं मिला ..मैंने उन्हें बहुत से किताबें लाकर दी हैं .. मैंने उन्हें उनके कार्टून कैरेक्टर्स का उदाहरण देते हुए समझाया कि जैसे आप के कार्टून कैरेक्टर spider-man bat-man  होते हैं ऐसे ही हमारे भी देवी देवता हमारे सुपर हीरोज होते हैं...समय के साथ बच्चे इसका सही महत्व समझ पाएगें .. हिन्दू जियो और जीने दो के सिद्धान्त पर आदि काल से ही विशवास करते रहे हैं और पर्यावरण के प्रति समवेदनशील रहे हैं।
हिंदुंओ ने प्रराम्भ से ही पर्यावरण संरक्षण को अपनी दिनचर्या में शामिल किया। दैनिक यज्ञों दुआरा वायुमण्डल को प्रदूष्ण-मुक्त रखने का प्रचलन  आदि काल से ही अपनाया हुआ है। जीव जन्तुओं को नित्य भोजन देने की भी प्रथा है। बेल, पीपल, तुलसी, नीम, वट वृक्ष तथा अन्य कई पेड पौधे आदि को भी हिन्दू संरक्षित करते हैं और प्रतीक स्वरूप पूजा भी करते हैं। हिन्दूओं ने समस्त सागरों, नदियों, जल स्त्रोत्रों तथा पर्वतों आदि को भी देवी देवता का संज्ञा दे कर पूज्य माना है ताकि प्रकृति के सभी संसाधनो का संरक्ष्ण करना हर प्राणी की दिनचर्या में पहला कर्तव्य हो।
पशु पक्षियों को देवी देवताओं की श्रेणी में शामिल कर के हिन्दूओं ने प्रमाणित किया है कि हर प्राणी को मानवों की तरह जीने का पूरा अधिकार है...सर्प और वराह को जहाँ कई दूसरे धर्मों ने अपवित्र और घृणित माना, स्नातन धर्म ने उन्हें भी देव-तुल्य और पूज्य मान कर उन में भी ईश्वरीय छवि को माना...हिन्दू हर जीव को ईश्वर की सृष्टि मानते हैं और समस्त सृष्टि को वसुदैव कुटुम्बकम – एक बड़ा परिवार। और इसीलिए सभी देवी देवताओ में जीव जंतुंओ की छवि देखने को मिलती है।
आप की अदालत में कंगना की बेबाक बातें और ऋतिक के साथ उन्हें अपने प्रेम संबंधों पर खुलकर बोलते देखकर हर कोई स्तब्ध है... फिल्म इंडस्ट्री में शायद ही किसी अभिनेत्री ने अपने व्यक्तिगत जीवन पर इस तरह खुलकर बातचीत की हो ..कंगना की स्पष्टवादिता और हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी ... अन्य छोटे शहरों की लड़कियों की तरह उसे अपनी सफलता की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी... मैं जिस बात को देखकर हैरान हूँ वह ये है कि चाहे श्रीदेवी हो या हेमा मालिनी
. सफलता के चरम पर पहुंचकर भी यह अभिनेत्रियां क्यों  अपने पुरुष सहकर्मेियों के हाथों खिलौना बन जातीं हैं और इतना दुख झेलतीं हैं ... कंगना और रितिक के मामले पर अभी भी प्रतिक्रिया व्यक्त करने में असमर्थ महसूस कर रही हूं ...रोज नए तथ्य सामने आ रहे हैं अभी हाल ही में सुजैन ने पति का पक्ष लेते हुए कहा कि सत्य को प्रमाण की जरुरत नहीं ...यह भी कहा जा रहा है कि यह उनकी फिल्म सिंगल रहने दे का प्रमोशनल स्टंट है.. ठीक फिल्म की रिलीज से पहले कंगना ने जानबूझकर यह सब किया... इस पूरे प्रकरण से एक बात तो सामने आती हैं जिस देश में एक आत्मनिर्भर सशक्त प्रसिद्ध अभिनेत्री मानसिक और शारीरिक शोषण का शिकार हो सकती है वहां आम लड़कियों की तो बात ही क्या है.. आज का यह सीन भूल भी जाएं तो अब से 14 साल पहले जब 16 साल की कंगना बॉलीवुड मैं स्ट्रगल करने के लिए आई थी तब आदित्य पंचोली के द्वारा शारीरिक और मानसिक शोषण का शिकार इस कदर हुई थी कि खिड़की से कूद कर इधर उधर छुप कर रहना पड़ा था ..उसके बाद शेखर सुमन के बेटे आद्धमन सुमन के साथ कंगना की मित्रता रही और शादी की भी खबरें आई लेकिन आद्धमन ने कंगना को आगे बढ़ने के लिए एक सीढ़ी के तौर पर इस्तमाल किया...उसके बाद कंगना का बॅालिवुड के  सुपरस्टार के साथ प्रेम परवान चढ़ा ..ऋतिक की इमेज बॉलीवुड में भली सी ही थी... कंगना के साथ अपने प्रेम को उन्होंने कभी नहीं स्वीकारा जिस तरह एक दूसरे पर आरोपों की बारिश हो रही है उसे देख कर लगता है कि रितिक कभी कंगना के लिए गंभीर नहीं थे ..अपने स्टारडम के बूते पर उन्होंने कंगना को आकर्षित किया और फिर छोड़ दिया कंगना के खिलाफ तमाम हथियार इस्तमाल करने के बाद अपनी पत्नी के आंचल में छुप रहे हैं ...अभी कंगना की बयानबाजी के बाद रितिक का रिएक्शन आना बाकी है खैर अब कंगना रितिक के दिए हुए धोखे से उबर चुकी है और पहले से कहीं सशक्त और समझदार नजर आ रही है अपने कैरियर पर फोकस रखे तो वह सफलता की ऊंचाइयों को छू सकती है... !!
जब से गुड़गांव के रियान इंटरनेशनल स्कूल में 8 साल के बच्चे के साथ उस दुर्दांत घटना की खबर पढ़ी है तब से सोच रही हूँ वह मासूम बच्चा कितनी मानसिक प्रताड़ना से गुजरा होगा... सोचिए दूसरी क्लास में पढ़ने वाला 8 साल का बच्चा .. पहले दुर्व्यवहार किया गया फिर कान से गले तक काट कर हत्या कर दी गई... बच्चा कुछ देर वही वॅाशरूम के बाहर तड़पता रहा फिर उसने दम तोड़ दिया ...बताया जा रहा है कि प्रद्धयुम्न स्कूल में होने वाले अपने सहपाठी के जन्मदिन की तैयारी में बेहद खुश घर से निकला था.. केवल 15-20  मिनट पहले उसके पिता उसे स्कूल छोड़ने आए थे और 15 मिनट में ही उसकी हत्या हो गई... यह भी बताया जा रहा है कि पिछले वर्ष भी रियान इंटरनेशनल स्कूल में एक बच्चे की लाश पानी की टंकी में मिली थी ...जाने क्यों मुझे इस घटना में स्कूल प्रशासन की कुछ गलती नजर आ रही है... टॉयलेट का cctv कैमरा भी खराब था ..घटना के तुरंत बाद ही कंडक्टर ने खुद को घटना का आरोपी  बताकर घटना की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली यह भी बात हजम नहीं हो रही... बच्चे के माता-पिता स्तब्ध हैं...  प्रद्धयुम्न की मां की आंखों के आंसू सूख चुके हैं और मीडिया टीआरपी बटोरने में लगा हुआ है ...मामला बेहद गंभीर है एक मासूम जान को कितनी निदर्यता के साथ मौत के घाट उतार दिया गया ...अगर बच्चे शिक्षा के मंदिर में भी सुरक्षित नहीं है तो फिर वह कहां सुरक्षित होंगे ..ऐसे स्कूल जहां इस तरह की अपराधिक गतिविधियों वाले व्यक्तियों को बिना जांच पड़ताल के काम दिया जाता हो उनकी मान्यता रद्द कर देनी चाहिए...  ईश्वर प्रद्धयुम्न के माता पिता को इस अपार दुख को सहन करने की शक्ति दे..  प्रद्धयुम्न की आत्मा को शांति दे अब तो बस यही कहा जा सकता है..इस घटना से इंसानियत शर्मसार है...!!
मेरा ऑफिस एक पांच सितारा बिल्डिंग में था ।अपना काम निपटा कर मैं कैफेटेरिया में खिड़की के सहारे बैठी थी ।मैंने देखा सामने वाली बिल्डिंग में एक कोचिंग इंस्टिट्यूट के ठीक बाहर हमारे पड़ोसी अग्रवाल साहब की बिटिया खड़ी हुई है ।शायद उसका बैच छूटा था और वह अपने सहपाठियों के साथ कोचिंग से बाहर आई ही थी। वह लोग कुछ देर वही खड़े होकर बात करने लगे ।उसके ग्रुप में कुछ लड़के और कुछ लड़कियां थे ।अग्रवाल साहब की बिटिया ने अपने मित्र के बाल खराब कर दिए और उसने बदले में उस लड़के ने उसके सर पर चपत लगा दी।  फिर वह सब लोग ठहाका मारकर हँस दिए।कुछ देर बातें करने के बाद  वह अपने ड्राइवर के साथ कार में बैठ गई और वहां से चली गई ।मुझे उन सबकी चुहलबाजी देखकर हंसी आ गई ।मुझे अपना समय याद आया। हमारे समय में लड़कें और लड़कियों के बीच में एक अजीब से दूरी रहती थी ।कान्वेंट में पढ़ने के बाद भी हम लोग इतने स्वतंत्र नहीं थे ।घर से समाज से यहां तक स्कूल से भी हजार तरह की बंदिशें थी ।लड़के और लड़कियां अकेले में खड़े होकर बात नहीं करेंगे ग्रुप में खड़े होंगे ।एक साथ लंच नहीं करेंगे। आजकल के बच्चे लड़के और लड़की होने के फर्क को सामान्य तरीके से लेते हैं ।अगले दिन जब मैं ऑफिस जाने के लिए तैयार हो रही थी । रसोई में जाकर जब मैं अपनी गृह सहायिका विमला को खाना बनाने के निर्देश दे रही थी तो मैंने देखा उसका चेहरा उतरा हुआ था। पूछने पर वह टाल गई फिर उसके बाद वह दो दिन काम करने नहीं आई । तीसरे दिन जब वह आई वह पहले से भी ज्यादा परेशान लग रही थी। शाम को जब वह चाय का कप लेकर मेरे पास आई तब मैंने उससे पूछा कि क्या बात है। चाय देकर वह मेरे पास बैठ गई और धीरे धीरे  सुबकने लगी। "क्या बताऊँ दीदी,  लक्ष्मी ने हमें कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा।कुछ लोगों ने बताया लक्ष्मी हमारी बस्ती के एक लड़के से बस्ती के बाहर कहीं मिलने गई थी ।हमारी बस्ती में सब लोग तरह-तरह की बातें बना रहे हैं । मेरे पूछने पर उसने बताया कि ऐसे ही वह लड़का उसे रास्ते में मिल गया, लेकिन फिर दोबारा किसी ने हमें बताया कि वह दोनों एक साथ थे ।" यह कहकर विमला रोने लगी मैंने आंखें फाड़ कर कहा ,"बस इतनी सी बात ! इतनी सी बात से तू मुंह दिखाने लायक नहीं रह गई ? तूने उससे पूछा वह उस लड़के से क्यों मिली ?" "हाँ पूछा और बहुत मारा भी, कह रही थी कि वो लड़का ऐसे ही उसे रास्ते में मिल गया था लेकिन हमको शक है कि दोनों का चक्कर चल रहा है हमें तो डर है दीदीजी की लक्ष्मी कहीं भाग ना जाए उस लड़के के साथ ।" "विमला! मैं चिल्ला कर बोली, जरूरी नहीं उन दोनों का चक्कर चल रहा है ,आजकल जमाना बदल गया है । आजकल की लड़कियां बेवकूफ नहीं होती । तुम्हारी लक्ष्मी बहुत समझदार है । बचपन से उसे देख रही हूूँ। मुझे पूरा विश्वास है वह ऐसा कोई कदम नहीं उठाएंगी। तुम उसे मेरे पास लेकर आना मैं उससे बात करूँगी और समझाऊंगी।"  बात आई-गई हो गई कुछ दिन विमला सामान्य रही ,उसके बाद फिर एक दिन मैं कैफेटेरिया की खिड़की के पास बैठी थी और सामने वाली कोचिंग की तरह देखने लगी ।छुट्टी के समय अग्रवाल साहब की बेटी अपने ग्रुप के साथ बाहर आई ।आज वह और उसका एक सहपाठी एक तरफ खड़े होकर बात करने लगे । वह उसे कॉपी में कुछ दिखा रही थी ।शायद वह लोग कुछ नोट्स शेयर कर रहे थे। लेकिन बीच में वह दोनों जोर से खिलखिलाकर हँसने लगते थे। मुझे उनको देखकर हंसी आ गई ।उम्र का यह पड़ाव बहुत खूबसूरत होता है । इस उम्र में हार्मोंस का प्रभाव विपरीत लिंग के प्रति एक अजीब सा आकर्षण पैदा कर देता है । किशोर मन दिन में भी सपने देखते हैं ।बहुत ही नाजुक दौर होता है यह। मैं विमला की बेटी लक्ष्मी के बारे में सोचने लगी । यहां एक ओर धनाढ्य परिवारों की बेटियां कान्वेंट स्कूलों में पढ़ती हैं । लड़कों के साथ पार्टी में भी जाती हैं। वहीं दूसरी और मध्यम वर्गीय और गरीब परिवारों की लड़कियां इस तरह खुले आम लड़कों से बात नहीं करतीं। लड़को से बातें नहीं करतीं।उन पर समाज का और परिवार का कुछ अधिक ही जवाब होता है । कम उम्र  मैं ही ढेरों जिम्मेदारियों के बोझ तले दबी होती हैं । सपने तो देखती हैं लेकिन उनमें उन्हें पूरा करने की हिम्मत नहीं होती ।उनकी हर हरकत पर नजर रखी जाती है और एक दिन वह अपने सपनों को दिल में ही दबाए माता पिता की मर्जी से शादी कर के पति के घर चली जाती हैं। बहुत फर्क होता है एक अमीर और गरीब की बेटी में दोनों के जीवन में और दोनों के सपनों में । कुछ दिन गुजर गए विमला फिर परेशान नहीं लगी थी पूछने पर बताया कि उसके शराबी पति ने लक्ष्मी की बहुत पिटाई की है ,लक्ष्मी को काफी चोट आई है । लक्ष्मी को काम से लौटने में देर हो गई और उसके बाद पड़ोसी ने फिर उसके पिता के कान भर दिए ।मुश्किल यह थी कि लड़का दूसरी जाति का था ।लक्ष्मी के पिता ने लड़के को जान से मारने की धमकी दी थी ।विमला ने अपनी बेटी के लिए लड़का देखना शुरु कर दिया था ।वह जल्दी उसके हाथ पीले करना चाहती थी और समाज की बातों से मुक्ति पाना चाहती थी। फिर एक दिन उसने मुझे बताया कि उसके भाई ने लक्ष्मी के लिए एक लड़का देखा है ।एक फैक्ट्री में काम करता है ,उन्ही की जाति का है । और वे लोग दहेज भी नहीं मांग रहे ।फिर एकदम विमला की जगह लक्ष्मी काम करने आई, मेरे पूछने पर उसने बताया कि उसने अपना काम छोड़ दिया है अबे घर पर ही रहती है । विमला के ना आने का कारण पूछने पर उसने बताया कि वह मामा के साथ उसकी शादी की तारीख फाइनल करने गई है । वह कहते हुए रोने लगी जितना जल्दी हो सके ये लोग मुझे घर से निकालना चाहते हैं ।मैंने उससे कहा कि कैसे विमला बस्ती वालों के तानों से परेशान है और उसे डर है कि कहीं लक्ष्मी उस लड़के के साथ भाग ना जाए। लक्ष्मी ने अपने आंसू पहुंचे और बोली "हां दीदी यह सच है कि मैं उस लड़के से मिली थी एक बार नहीं कई बार वह जिन लोगों के यहां ड्राइवरी का काम करता है उनकी कपड़ा बनाने की फैक्ट्री है उसने वहां मेरे काम की बात करी थी। ₹10000 महीना मिंलती । बाबा तो दारु पीकर घर बर्बाद कर चुका है, हम पांच भाई बहन हो । मां 5000 कमाती है और मैं 3000 ।भाई बहनों की  3 महीने से स्कूल फीस नहीं भरी गई है । उनका नाम स्कूल से कटने वाला है ,मैंने सोचा कि अगर बड़ी फैक्ट्री में नौकरी मिल जाए तो हमारी सारी परेशानी दूर हो जाएगी। मैं इसीलिए किसी अच्छी नौकरी की तलाश में थी और अपने पड़ोसी से इसी बारे में बात करने के लिए मिली थी, लेकिन बस्ती के लोगों ने कुछ और ही समझा और मां बाबा के कान भर दिए ।दीदी सच में मेरा उस लड़के के साथ कोई चक्कर नहीं है ।हमारे हालात ऐसे नहीं कि मैं किसी लड़के के साथ घूमूँ फिरूं। घर का काम और फिर  भाई बहनों की जिम्मेदारी ,दीदी जी अम्मा को समझाओ ना ,मेरी शादी ना करें अभी मैं केवल 18 की हूं घर को मेरी बहुत जरूरत है ।मेरे जाने के बाद मां अकेली पड़ जाएगी भाई बहनों की की पढ़ाई छूट जाएगी फिर माँ उनको भी काम पर लगा देगी ।" मैंने उसे आश्वासन दिया कि इस बारे में विमला से बात करुंगी लेकिन मैं जानती थी कि कुछ नहीं होने वाला और मैं उसकी कोई मदद नहीं कर पाऊंगी ।अगले दिन ऑफिस से मैंने फिर अग्रवाल साहब की बेटी को देखा । वह रोज की तरह खिलखिला रही थी उसके कमर तक लंबे बाल खुले हुए थी।उसने घुटनों तक केप्री पहनी हुई थी । अपने साथ के लड़के लड़कियों के साथ उन्मुक्त हंसी हंस रही थी ।वह जिंदगी की परेशानियों से  बेफिक्र थी ।मैं सोचने लगी दो एक साल में उसका मेडिकल या फिर किसी अच्छे कोर्स में सेलेक्शन हो जाएगा । वह कॉलेज जाएगी उसके बाद अच्छी नौकरी करेगी । एकअच्छी लाइफ स्टाइल जीते हुए फिर वह या तो अपनी पसंद के या अपने माता पिता के देखे हुए किसी संपन्न परिवार के लड़के से शादी कर लेगी और सुख से रहेगी वहीं दूसरी ओर विमला की बेटी थी। मेरी आंखों के आगे उसका चेहरा घूमने लगा। वह मासूम कितने दुख और परेशानियों के बोझ तले अपना जीवन काट रही है। माता-पिता के घर भी काम किया और अब किसी गरीब लड़के के साथ शादी होकर वह ससुराल में भी काम करेगी । एक समझौते की जिंदगी  जिएगी । जाने उसका क्या होगा ? वह सुखी रहेगी भी या नहीं। पैसा इंसान के जीवन को बदल देता है कम से कम लड़कियों के मामले में तो ऐसा ही है । गरीब की बेटी होना किसी गुनाह से कम नहीं है।

सोमवार, 28 अगस्त 2017

ऐशो आराम और भोग विलासिता का जीवन जीने वाले और शिष्याओ से घिरे रहने वाले बाबाओं में मुझे कभी श्रद्धा नहीं रही लेकिन धार्मिक हूँ और योग और आध्यात्म में मेरा विश्वास है तो पूर्णतः सात्विक जीवन जीने वाले संत महात्माओं में अपनी आस्थाओं से मैं इनकार नहीं करती. मैं अपनी दादी माँ के साथ अक्सर वृंदावन जाती थी जहाँ बहुत से संत महात्माओं के दर्शन हुए...बहुतों के बारे में दादी से सुना करती थी...वैराग्य के कई रूप देखे...लेकिन इनसे बहुत ऊपर हैं एक योगी। दरअसल उन्हें ‘महायोगी’ कहकर बुलाया जाता था वो देवरहा बाबा थे... दादी की देवरहा बाबा में अपार आस्था थी तो कौतहूलवश मैं भी उनके विषय में जानने को सदा उत्सुक रहती...कहते हैं उनकी आयु 200 वर्ष से भी ज्यादा की थी। दुनिया के कोने-कोने से महान एवं प्रसिद्ध लोग उनके दर्शन करने आते थे। उनके चेहरे पर एक अलग किस्म की चमक थी और लोगों का यह तक मानना था कि देवरहा बाबा को खेचरी मुद्रा पर सिद्धि थी। जिस कारण वे अपनी भूख और आयु पर नियंत्रण प्राप्त कर लेते थे।
बाबा देवरहा 1990 में चल बसे। बाबा मथुरा में यमुना के किनारे रहा करते थे। यमुना किनारे लकडिय़ों की बनी एक मचान उनका स्थाई बैठक स्थान था। बाबा इसी मचान पर बैठकर ध्यान, योग किया करते थे। भक्तों को दर्शन और उनसे संवाद भी यहीं से होता था। देवरहा बाबा ने जीवनभर अन्न ग्रहण नहीं किया। वे यमुना का पानी पीते थे अथवा दूध, शहद और श्रीफल के रस का सेवन करते थे। तो क्या इसका मतलब उन्हें भूख नहीं लगती थी। इस प्रश्न का जवाब कई वैज्ञानिक अध्ययनों में मिलता है। एक अध्ययन के अनुसार अगर कोई व्यक्ति ब्रह्माण्ड की ऊर्जा से शरीर के लिए आवश्यक एनर्जी प्राप्त कर ले और उसे भूख ना लगे यह संभव है।
साथ ही अगर कोई व्यक्ति ध्यान क्रिया करे और उसकी लाइफस्टाइल संयत और संतुलित हो तो भी लम्बे जीवन की अपार संभावनाएं होती हैं। इसके अतिरिक्त आयु बढ़ाने के लिए किए जाने वाली योग क्रियाएं करे, तो भी लम्बा जीवन सपना नहीं। हालांकि अध्ययन के अनुसार इन तीनों चीजों का एक साथ होना आवश्यक है। बाबा के पास इस तरह की कई और सिद्धियां भी थी। इनमें से एक और सिद्धी थी पानी के अंदर बिना सांस लिए आधे घंटे तक रहने की। इन सिद्ध महापुरुष,संत और महान आत्मा को मेरा कोटि कोटि प्रणाम जिन्होंने जन मानस को त्याग और सहिष्णुता के माध्यम से आध्यात्मिक मार्ग पर चलने को प्रेरित किया।
पिता ने रिपोर्ट कार्ड देखा बच्चे के कुछ विषय में नंबर कम आए थे पिता ने तड़ाक... एक जोरदार चाँटा मारा बेटे को....झन्नाटेदार चाँटे से लड़का सकपका कर रह गया ...जब तक कुछ समझ पाता तब तक पिता ने एक और चाँटा मारा ...लड़के का कान लाल हो गया ....पिता टीचर से उसकी शिकायतें सुनकर और भी लाल पीला हो गया ....टीचर बताती जा रही थी कि पिछले कुछ समय से बच्चा अजीब व्यवहार कर रहा था और उसकी वजह से क्लास मै डिस्टर्बेंस होता है। मेरी नज़र अब भी उस बच्चे के चहरे पर छपी उसकेे पिता की उंगलियों पर थी। मैं अधीर हो उठी मुझसे यह दृश्य देखा नहीं गया मैं उस बच्चे की मानसिक स्थिति और उसके कष्ट को देखकर परेशान हो गई ..संयोग से टीचर समझदार और सुलझी हुई थी ..मैं अनावश्यक रूप से मामले में कूद पड़ी और टीचर तथा उस बच्चे के पिता दोनों से इस बारे में बात करने लगी ..पिता समझने को तैयार नहीं था बच्चे को लेकर बाहर चला गया तब मैंनें टीचर से आग्रह किया कि वह कृपया उस बच्चे के विषय में थोड़ी नरमी से काम लें क्योंकि वह बच्चा पहले ही एक बेहद असंयमित और क्रूर स्वभाव के पिता के हाथों प्रताड़ित किया जा रहा है ..बातों ही बातों में टीचर ने बताया कि वह बच्चा एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटी में बहुत अच्छा है और गाना भी बहुत अच्छा गाता है जिसके लिए उसे स्कूल में कई बार पुरस्कार भी मिल चुके हैं लेकिन यह उस बच्चे के पिता के लिए कोई बड़ी उपलब्धि नहीं थी उसे बस बच्चे को दुनिया के साथ चलने के लिए एक अच्छे नंबर वाला रिजल्ट कार्ड चाहिए था ... घर आकर भी मैं काफी व्यथित रही मेरे सामने बार बार बच्चे का चेहरा घूमता रहा ..खैर यह तो केवल टेस्ट का रिजल्ट था, एग्जाम अभी होने थे ..अब की बार जब मैं एग्जाम का रिजल्ट लेने स्कूल पहुंची तो बच्चा नहीं आया था बच्चे के पिता उसका मेडिकल जमा करा रहे थे मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि उस बच्चे के पांव में फ्रैक्चर हो गया और वह एग्जाम ही नहीं दे पाया है ..मैं हैरान रह गई अब मेरी बारी थी उनसे बात करने की मैंने उनसे पूछा भाई साहब आप बुरा मत मानिएगा लेकिन बताइए आप ने बच्चे को इतना मारा पीटा उस पर इतना दबाव डाला लेकिन क्या फायदा हुआ ... आपका बच्चा बेहद टैलेंटेड है आपको उसके साथ नरमी से पेश आना चाहिए था थोड़ी सी काउंसलिंग और गाइडेंस के साथ वह बहुत अच्छा परफॉर्म कर सकता है ..उसका टाइम टेबल बना दे कठिन विषयों में उसे गाइड करें ...हर बच्चे का आई क्यू लेवल अलग-अलग होता है उसे उसी प्रकार हैंडल करना चाहिए बच्चे पर अपनी अपेक्षाएं लादने से पहले यह भी देखना चाहिए कि वह उन्हें पूरी कर पाने में सक्षम है या नहीं ....बच्चे के साथ जो एक्सीडेंट हुआ उसकेे द्वारा शायद प़ॄकति भी आपसे यही कहना चाहती है.... हो सकता है आप मारपीट के द्वारा पढ़ा कर एक अच्छी नौकरी दिला दें लेकिन एक बार यदि आपने अपने बच्चे के साथ पिता पुत्र के संवेदनशील रिश्ते को खो दिया तो फिर आप कभी अपने बच्चे के साथ जुड़ नहीं पाएंगे... उस दिन आपने अपने 10 -12 बारह वर्ष के बच्चे के साथ जो व्यवहार किया यकीन मानिए बड़े होने पर बच्चा उस व्यवहार को कभी भूल नहीं पाएगा कि कैसे उसके दोस्तों और टीचर के सामने आपने उसके साथ मारपीट की उसके कोमल मन से ये यादें कभी मिट नहीं पाएंगीं ..अब जितने दिन आपका बच्चा बेड रेस्ट पर है उसके साथ दोस्ताना व्यवहार कीजिए और उसे समझने की कोशिश कीजिए..अब वह व्यक्ति शायद अपने किए पर शर्मिंदां था..मैं अक्सर इस तरह के माता-पिता को देखती हूं जो बच्चों पर पढ़ाई के लिए दबाव डालते हैं और बच्चे को मानसिक रूप से बेहद कष्ट से गुजरना पड़ता है ...ये अभी हाल ही की घटना है .. आज इस घटना का जिक्र मैंनें इसीलिए किया क्यूँ कि पिछले कई रोज से जिस छोटी बच्ची की वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रही थी फाइनली उसका पता चल गया कि वह तोषी की भांजी है... वीडियो में बच्चे की माँ उसको बड़ी निर्दयता के साथ पढ़ा रही है और बच्ची रोए जा रही है वीडियो देखने के बाद हर कोई उस माँ के प्रति अपना गुस्सा व्यक्त कर रहा था ..जाहिर तौर पर उस महिला का अपने बच्चे के प्रति व्यवहार असंयमित और आक्रोश से भरा हुआ था ... आखिर ऐसी क्या वजह थी कि इतनी छोटी बच्ची को उसकी मां पढ़ाई के लिए इतना दबाव डाल रही थी कि वह अपना संयम खो बैठी ...समझ नहीं आता किसका दोष है उस माँ का... या हमारे एजुकेशन सिस्टम का ...जिसने ऐसी व्यवस्था निर्मित की है कि जहां बच्चों के सफल होने का मापदंड मात्र केवल उनके रिपोर्ट कार्ड को माना जाता है ... ऐसा केवल इस वीडियो में नहीं बल्कि आए दिन देखने में आ रहा है ... हमारा एजुकेशन सिस्टम केवल अच्छा परीक्षाफल लाने की एक प्रक्रिया को बढ़ावा देता है.. बच्चे के मानसिक विकास के लिए उसे परिवार और स्कूल की ओर से भावनात्मक सुरक्षा की भी जरूरत होती है हर बच्चे का आईक्यू एक सा नहीं होता लेकिन आप उससे बेहतर परफॉर्म करवाने का प्रयास करते रहे लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद बच्चा अच्छा परफॉर्म नहीं कर पा रहा है तो उसकी समस्या का किसी और तरह से हल निकालने की कोशिश करनी चाहिए.. विदेशों में बिहेवरियल थेरेपी का प्रयोग किया जाता है जिसमें बच्चे को कठिन लगने वाले विषय पर अधिक ध्यान देकर उसे सरल तरीके से सीखनें के तरीके बताए जाते हैं... किताबों के अलावा अन्य माध्यमों से विषय समझाने की कोशिश की जाती है.. खामियां हमारे एजुकेशन सिस्टम में ही हैं अति महत्वकांक्षी माता पिता बच्चे को जीनियस बनाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं बेचारे बच्चे करें तो क्या करें ...!!!

मंगलवार, 8 अगस्त 2017


दो अलग अलग पोस्ट पढ़ने में आईं आज... दोनों ही महानगरों में जीवन की असुरक्षा और संवेदनशून्यता पर प्रश्नचिन्ह लगाती हुई.... पहली खबर चंडीगढ़ में एक युवती को कुछ युवको की कार के द्वारा पीछा किए जाने की थी , और दूसरी मुंबई में एक अस्सी वर्ष की वृद्ध महिला के अकेले में बेहद विचलित कर देने वाली स्थिति में मृत पाए जाने की थी ... दोनों ही खबरों को पढ़ कर में सोच में पढ़ गई .... हम किस तरह के समाज में रह रहे हैं जहाँ जीवन सुरक्षित नहीं , सड़को पर चलने में भी भय और असुरक्षा का सामना करना पड़े ... और एक वृद्ध महिला एक मकान में अकेली दम तोड़ दे लेकिन कोई वहाँ आकर उसका हाल पूछने वाला न हो..... हम केवल अपने लिए जी रहे हैं ...इच्छाएं , महत्वकांछाएं   .. अपने परिवार तक सीमित , बस किसी तरह खुद को आगे ले जाने की कशमकश...  ये चंडीगढ़ जैसे महानगरों की स्थिति मुझसे अधिक कौन जानेगा, पाँच साल अकेले गुजारे हैं वहाँ, सफाई और ग्लैमर , चमक धमक को एक तरफ करके मानवता की बात की जाए तो बहुत ही निचले पायदान पर पाएगें इन महानगरों को। ये जो वर्णिका नाम की युवती है जिसका कुछ लड़कों ने चंडीगढ़ में कार से पीछा किया और फिर पुलिस की मदद से वह सुरक्षित घर पहुँच पाई..... एक बहुत ही आम घटना है .. बड़े छोटे सभी शहरों में लड़कियां आए दिन इस तरह की घटनाओ का सामना करती हैं ... लेकिन मै अब इस खबर पर पोस्ट इसलिए लिख रही हूँ कि मैं सुबह से कई लोगों को उस लड़की के चरित्र पर टिप्पणी करते पा रही हूँ... वास्तविकता जो भी हो....यह लड़की तो केवल एक उदहारण है... लड़कियाँ कहीं भी सुरक्षित नहीं... ये बात और है कि जितना उस लड़की के चरित्र के बारे में लिखा जा रहा है उतना उन युवकों के बारे में लिखा जाता तो शायद भविष्य में इस तरह के प्रभावशाली घरो के बिगड़े हुए शोहदों को कुछ सीख मिलती.... आमतौर पर हर लड़की इस तरह की घटना का कभी न कभी शिकार होती है .. विशेष रूप से रात के समय लड़कियों का सड़को पर सुरक्षित आना जाना किसी भी हालत में हमारे देश में संभव नहीं ...मैंने खुद चंडीगढ़ प्रवास के दौरान इस तरह की एक घटना को देखा है .. चंडीगढ़ के बेहद पॉश इलाके में जहाँ हमारा घर था उससे थोड़ी ही दूर पर एक महिला जयपुर से आए हुए एक नवविवाहित दंपत्ति रहते थे। पति टेलीकॉम कम्पनी में थे और पत्नी हाउसवाइफ ... वो अक्सर मुझे मिलती थी और  मेरी उससे अच्छी दोस्ती हो गयी थी.. एक रोज़ करीब आठ बजे वह लड़की सब्जी आदि खरीद कर वापिस आ रही थी कि एक कार उसका पीछा करने लगी.. लड़की सड़क के किनारे चलती हुई आती रही लेकिन मार्किट से हमारी कॉलोनी तक उस कार ने लड़की का पीछा करना जारी रखा ... हमारा घर आते ही वह गेट के अंदर आ गई ... थोड़ी देर बाद वो कार चली गई..  और मेरी सहेली भी अपने घर वापिस लौट गई ...                                                                                                                      वहीँ दूसरी घटना है जिसमें  मुंबई में एक वृद्धा को अपने शानदार फ्लैट में कंकाल के रूप में मृत पाया गया ... बेटा विदेश में और यहाँ कब से माँ मृत अवस्था में फ्लैट में बंद थीं .. क्या कोई इतने दिन तक उस वृद्ध महिला से मिलने नहीं आया होगा .. कोई परिचित, रिश्तेदार, कोई भी नहीं...  ये किस तरह का जीवन है ... जहाँ किसी को किसी के लिए समय नहीं ... अजीब दौड़ है... .जाने कितने ही ऐसे बुजुर्ग लोगो को देखती हूँ .. बेटा उच्च पद पर नौकरी करता है, हर महीने माता पिता को पैसे भेजता है , बैंक अकाउन्ट भरे पड़े हैँ और दिल भावनाओं से खाली .... यही प्रगति है उस बेटे के लिए , खैर मैनें सालों पहले एक पोस्ट की थी जिसमें एक बेहद दर्दनाक अनुभव से सामना हुआ था मेरा, यह महज संयोग है कि ये घटना भी मेरे चंडीगढ़ प्रवास के दिनों की है.... मैं चंडीगढ़ पहुँच कर नए घर में शिफ्ट ही हुई थी कि एक रोज़ कुछ दूर एक मकान से मुझे एक महिला के जोर जोर से रोने की आवाज़ आई ... मैं नई जगह होने के कारण असमंजस में थी। ... काफी देर तक जब उस मकान के आसपास के घरों से कोई मदद के लिए नहीं निकला तो मुझसे रहा नहीं गया ... मैं वहाँ गई, अब काफी और लोग भी वहां आ चुके थे, लेकिन तब तक बहुत देर हो गई थी ... उनके बेटे ने खुद को कमरे में बंद कर के आत्महत्या कर ली थी .... अजीब शहर हैं ये सारे ,संवेदनाएं मृत हैं .... हम घरों से निकलना नहीं चाहते ... निकलते हैं भी तो एक आवरण के पीछे खुद को छुपाये फिरते है... उसी आवरण के पीछे एक दिन इस दुनिया से विदा ले लेते हैं .... मनुष्य से मनुष्य का रिश्ता इतना पेचीदा क्यों है,समझ नहीं आता  



मंगलवार, 9 मई 2017

 गौतम बुद्ध ने जितने हृदयों की वीणा को बजाया है उतना किसी और ने नहीं। गौतम बुद्ध के माध्यम से जितने लोग जागे और जितने लोग परम भगवत्ता को उपलब्ध हुए उतने किसी और के माध्यम से नहीं। 
बुद्ध ने उनको चेताया जिनको चेताना सर्वाधिक कठिन है- विचार से भरे लोग, बुद्धिवादी, चिंतन, मननशील। प्रेम और भाव से भरे लोग तो परमात्मा की तरफ सरलता से झुक जाते है, उन्हें झुकना नहीं पड़ता। उनसे कोई न भी कहे, तो भी वे पहुंच जाते हैं, उन्हें पहुंचाना नहीं पड़ता, लेकिन वे तो बहुत थोड़े हैं और उनकी संख्या रोज थोड़ी होती गई है। अंगुलियों पर गिने जा सकें, ऐसे लोग हैं।बुद्ध ने काफी कह दिया, जरूरत से ज्यादा कह दिया। जितना समझना जरूरी हो, उससे ज्यादा कह दिया। जितने से पूरी यात्रा हो सकती है, उतना कह दिया।
पूरा सेतु निर्मित कर दिया, रास्ता पूरा साफ कर दिया।... काश! सुनने वालों में थोड़ी भी समझ होती, तो वहीं देखते जिस तरफ बुद्ध देख रहे हैं। बुद्ध क्या कहते हैं, यह समझना जरूरी नहीं है।
मनुष्य का विकास मस्तिष्क की तरफ हुआ है। मनुष्य मस्तिष्क से भरा है। इसलिए जहां जिससे हार जाए, जहां कृष्ण की पकड़ न बैठे, वहां भी बुद्ध नहीं हारते। वहां भी बुद्ध प्राणों के अंतरतम में पहुंच जाते है।
बुद्ध का धर्म बुद्धि का धर्म कहा गया है। बुद्धि या उसका आदि तो है, अंत नहीं। शुरुआत बुद्धि से है, प्रारंभ बुद्धि से है, क्योंकि मनुष्य वहां खड़ा है, लेकिन अंत, अंत उसका बुद्धि में नहीं। अंत तो परम अतिक्रमण है, जहां सब विचार खो जाते हैं।
सब बुद्धिमत्ता विसर्जित हो जाती है। जहां केवल साक्षी, मात्र साक्षी शेष रह जाता है। लेकिन बुद्ध का प्रभाव उन लोगों में तत्क्षण अनुभव होता है, जो सोच-विचार में कुशल है। बुद्ध के साथ मनुष्य जाति का एक नया अध्याय शुरू हुआ।
पच्चीस सौ वर्ष पहले बुद्ध ने वह कहा जो आज भी सार्थक मालूम पड़ेगा और जो आने वाली सदियों तक सार्थक रहेगा।  बुद्ध ने कहा हैः- मेरे पास आना, लेकिन मुझसे बंध मत जाना। तुम मुझे सम्मान देना, सिर्फ इसलिए कि मैं तुम्हारा भविष्य हूं, तुम भी मेरे जैसे हो सकते हो, इसकी सूचना हूं। तुम मुझे सम्मान दो, तो यह तुम्हारा बुद्धत्व को ही दिया गया सम्मान है, लेकिन तुम मेरा अंधानुकरण मत करना।
क्योंकि तुम अंधे होकर मेरे पीछे चले तो बुद्ध कैसे हो पाओगे? बुद्धत्व तो खुली आंखों से उपलब्ध होता है, बंद आंखों से नहीं और बुद्धत्व तो तभी उपलब्ध होता है, जब तुम किसी के पीछे नहीं चलते, खुद के भीतर जाते हो। कल्याण मित्र बुद्ध का शब्द है, गुरु के लिए। बुद्ध गुरु के शब्द के पक्षपाती नहीं, थोड़े विरोधी हैं।
बुद्ध ने अपने शिष्यों को कहा है कि मैं तुम्हारा कल्याण मित्र हूं। बुरे मित्रों की संगति न करें, न अधम पुरुषों की संगति करें।
कल्याण मित्रों की संगति करें और उत्तम पुरुषों की संगति करें।...कल्याण मित्र का अर्थ हैः- जो पहुंच गया, जिसने शिखर पर घर बना लिया। उत्तम पुरुष का अर्थ है, जो मार्ग पर है, लेकिन तुमसे आगे है, तुमसे श्रेष्ठतर है। तुमसे सुंदरतम है। उत्तम पुरुष का अर्थ है, साधु।
उत्तम परुष का अर्थ है थोड़ा तुमसे आगे। कम से कम उतना तो तुम्हें ले जा सकता है, कम से कम उतना तो तुम्हें खींच ले सकता है। कल्याण मित्र वही है, जो तुम्हारे भीतर की मनःस्थिति को बदलने में सहयोगी हो जाता है। और यह तभी संभव है, जब वह तुमसे उपर हो, उत्तम पुरुष हो।
यह तभी संभव है जब वह तुमसे आगे गया हो। जो तुमसे आगे नहीं गया है, वह तुम्हें कहीं ले जा न सकेगा। आगे ले जाने की बातें भी करे तो भी तुम्हें नीचे ले जाएगा। मैं तुम्हें बुद्ध की बात संक्षिप्त में कह दूं।
बुद्ध कहते हैं:- न कोई गुरु है, न कोई शिष्य है। और मैं तुम्हारा गुरु और तुम मेरे शिष्य! मेरे पास सिखाने को कुछ भी नहीं हैं, और आओ, मैं तुम्हें सिखाऊं। गुरु की कोई जरूरत नहीं है, और आओ, मेरा सहारा ले लो।

 बुद्धम् शरणम् गच्छामि
 एस धम्मो सनंतनो 

सोमवार, 13 फ़रवरी 2017

आज सुबह से प्रेम पर लिख रहे हैं लोग , प्रेम पर्व वेलेंटाइन डे , कुछ लोग विरोध भी कर रहे हैं ,
 ये प्रेम व्रेम  कुछ नही , व्यर्थ बोझ है , दुःख को आमंत्रण देना ,
मैं कहती हूँ  ठीक है , लेकिन प्रेम से क्या भागना ,
सच कहो जीवन मे हम हज़ार तरह के  दुःख और तकलीफों का बोझ ढो  रहे हैं,
प्रेम यदि दुःख है तो भाई एक दुःख और सही ,
 प्रेम केवल किसी एक इंसान से नहीं , प्रेम सब से करो ,
जितना दोगे उतना ही बढ़ेगा ,  ये पूँजी खर्च करने से बढ़ती है ,  
लेकिन सच सच बताओ , जब हम जीवन की संध्या में होते हैं तो
क्या  यही प्रेम के पल हमें ख़ुशी नही देते ?
एक मीठी सी अनुभूति , जीवन संघर्षों से  भरा है ,
बस प्रेम ही है जो ऐसे में शीतलता प्रदान करता है मन को ,
उसे भी नकारते हो , उससे भी दूर भागते हो , क्यों?
जीवन को सरल बनाना है ? तो इस झूठे आवरण को उतार फेंको ,
सभ्य समाज के सभ्य नागरिक , गुरुर से भरे  हिन्दू हैं , मुस्लिम हैं ,
 अमीर हैं गरीब हैं , बस इंसान नही हैं , किसी से ज़रा मिले नही कि
 आवरण ओढ़ लिया ,मुखौटा लगा लिया ,
कहीं वो समझ न जाये हमारे मन की स्थिति , हमारी मनो दशा ,
काहे का आवरण , कैसा घमंड , कल जब वृद्ध हो जाओगे ,
अकेले रह जाओगे तब भी तो उतारोगे न इस आवरण को , इस मुखोटे को ,
 फिर आज क्यों नही ,  बनावट की हंसी हँसते हो ,
क्यों प्रेमपूर्ण हो कर नही मिलते , सबके साथ एक जैसा व्यव्हार क्यों नहीं ,
ये कोई बड़ा , धनी आदमी है , इससे  यूँ मिलना है ,
ये गरीब है तो इससे दूर से मिलना है , ये हमारे स्तर का है , ये नही ,
कितने दिन तक इस झूठ को जिओगे ? अंत मे अकेले ही पाओगे खुद को ,
डिज़ाइनर कपड़े, डिज़ाइनर चश्मे, जूते, घड़िया , सारा  सामान ,
फिर भी खुश नही हो , क्यों, हर पल ढूँढ़ते हो किसी को, जिससे दिल की बात कह सको ,
बड़ा आसान सा तरीका है , कोई विज्ञानं नहीं , कोई गणित नही ,
जो पहला व्यक्ति मिले अब से उससे प्रेमपूर्ण हो जाओ , प्यार से सहजता से बात करो ,
जैसे हो वैसे ही रहो , कोई आवरण नही , जो कल करना है आज से करो ,
 किसने कहा धन तुम्हें बड़ा बनाता है ? ताकतवर बनाता है , ,
 एक क्षण में बीमारी आती है और हमारा सारा गुरुर ,
सारा अहम अस्पताल के स्ट्रेचर पर विवश होकर पड़ जाता है ,
जीवन फिर से जीने की चाह लिए हुए ,  उसी पल का सोच का विनम्र हो जाओ ,
सहज हो जाओ , मैं इसी को प्रेम कहती हूँ , मेरे लिए यही पूजा है , यही प्रार्थना ,
मैं सबसे प्यार से मिलती हूँ और बदले में  हज़ार गुना अधिक प्रेम पाती हूँ ,
यही सबसे अधिक शक्तिशाली बनाता है , सबसे अधिक शांति देता है। ..... 

रविवार, 15 जनवरी 2017

इंस्टेंट नूडल हो गया है प्रेम कि एक दिन निर्धारित कर लो और उस दिन इज़हारे मोहब्बत कर दो। बाकि ३६५ दिन भले ही जूते चप्पल बजते रहे। वैश्वीकरण तथा बाज़ारीकरण लोगो की मनोदशा को मुट्ठी में बंद किये बैठा है। और सफेदी लिए हुए बालों के साथ जवान होते बेटे बेटियों के सामने माता पिता भी एक दुसरे को फूल और कार्ड दे कर अपने नवीन प्रेम को प्रदर्शित कर रहे हैं। वहीँ शहर के किसी और कोने में उन्हीं की बेटियां भी अपने वैलेंटाइन के साथ इस पावन पर्व को सेलिब्रेट कर रहीं हैं। क्या प्रेम को किसी एक निर्धारित दिन के अनुसार व्यक्त किया जा सकता है?
दुनिया वाकई बहुत तेजी से बदल रही है और प्यार करने और उसे जताने के तरीके भी। 
इंटरनेट क्रांति ने आज की पीढी को ज्यादा मुखर बना दिया है| फेसबुक ट्विटर से लेकर व्हाट्सएप जैसे एप आपको मौका दे रहे हैं कि कुछ भी मन में न रखो जो है बोल दो| 
सुना है हर जिले में एक बाल संरक्षण समिति होती है जिसका कार्य होता है उस जिले में रहने वाले गरीब तबके के , बेसहारा बच्चों के लिए कार्य करना…  शिक्षा के क्षेत्र में तथा अन्य बुनियादी सुविधाओं के मद्देनज़र कार्य योजनाएं बनाना तथा उनको कार्यान्वित करना .... आश्चर्य की बात है कि हमारे क्षेत्र में जहाँ मुझे हर जगह सड़कों पर भीख मांगते ,मजदूरी करते बच्चे दिखाई देते हैं वहां हमारे क्षेत्र के शिक्षा विभाग और बाल संरक्षण समिति के पास इन बच्चों का कोई ब्यौरा नहीं है …  वर्षा की फोटो मैने बहुत पहले भी फेसबुक पर पोस्ट की थी .... वो मेरे यहाँ आने वाले बच्चोँ के साथ पढ़ रही है.…लेकिन इसके जैसी और भी बहुत सी बच्चियाँ हैं … क्या होगा इनके भविष्य का.…??
प्रेम मुक्त करता है.... बांधता नहीं है… चाहे वो प्रेयसि का हो , माँ का, मित्र का या पत्नी का। और यदि वो बंधन में बाधता है तो वो प्रेम हो ही नहीं सकता … क्योंकि प्रेम एक विश्वास का नाम है और जहाँ विश्वास नहीं वहां प्रेम भी नहीं हो सकता। 
जीवन को सही तरह से समझना है तो ठहराव जरूरी है।  गतिशील जीवन में हम न तो स्वयं को समझ सकते हैं और न दूसरों को। हाँ यदि केवल उपलब्धियों को ही जीवन मान लें तो ठहराव संभव नहीं , और यदि उपलब्धियों से परे जीवन को जानने का प्रयास करना है तो थमना होगा , रुकना होगा। ऐसे में संभव है भीड़ में पीछे रह जाना , एकाकी हो जाना ,लेकिन उस ठहराव में ही ज्ञान होता है जीवन की सही दिशा का उसके गंतव्य का। 
सुबह फोन पर  राकेश शर्मा सर से समसामयिक विषयों पर चर्चा हुई  । इस कविता के साथ सर ने बहुत सी बातें कहीं जो मन के किसी कोने में सहेज दी हैं ,,  वास्तव में आध्यात्मिक वा ज्ञानी व्यक्तित्व के स्वामी हैं सर ,सफलता के शीर्ष पर पहुचकर भी विनम्र व सरल व्यक्तित्व, जिन्हें अभिमान छू भी नही सका, असीमित ज्ञान , तेजस्वी व्यक्तित्व। कविता सुन कर मैंने हठपूर्वक सर से निवेदन भी किया कि वे इन्हें औरों के साथ बांटें।
संबंधों का अब कोई सम्बन्ध
रहा नहीं बाकी  ,
द्वेत से अद्वैत हो गया हूँ मैं ;
     समुद्र की लहर हूँ मैं ,
     चन्द्रमा की पूर्णिमा हूँ मैं,
     रजनीगंधा की सुगंध हूँ मैं ,
    सूर्य की अरुणिमा हूँ
    द्वैत से अद्वैत हो गया हूँ मैं ;
वसुंधरा का प्रसाद हूँ मैं ,
फिर से प्रसाद होने को
बीज हो गया हूँ मैं ,
द्वैत से अद्वैत हो गया हूँ मैं ;
    काल से अकाल  हो गया हूँ मैं,
   अपूर्ण से पूर्ण हो गया हूँ मैं ,
   द्वैत से अद्वैत हो गया हूँ मैं ;
जो ब्रह्माण्ड है वो मैं हूँ,
और जो मैं हूँ वो ब्रह्माण्ड है ;
अहं ब्रह्मास्मि....अहं ब्रह्मास्मि.....अहं ब्रह्मास्मि।।




आज एक मित्र से बात हो रही थी ।  उनके लगभग 40 -45 वर्षीय  रिश्तेदार को कैंसर हो गया।  वह शारीरिक रूप  से हष्ट पुष्ट और एक दम स्वस्थ थे लेकिन फिर लगभग २ महीने पहले अचानक उन्हें इस बीमारी का पता चला। मेरे मित्र कहने लगे कि यदि  वे योग व्यायाम आदि करते तो ऐसा नहीं होता।  मैंने उनसे कहा जन्म और मृत्यु तो पूर्व निश्चित होते हैं। योग और व्यायाम आदि से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता तो बढ़ाई जा  लेकिन मृत्यु को टाला नहीं जा सकता। हम सब  संसार में एक निश्चित आयु लेकर आते हैं और उसके पूरा होते ही यहाँ से कूच कर जाते हैं।  फिर मृत्यु किसी भी बहाने से आए कुछ कहा नहीं जा सकता।  हम अक्सर देखते हैं कि कैसे कभी कोई एक दम स्वस्थ व्यक्ति कम उम्र में अचानक किसी कारण से हमारे बीच से चला जाता है और कोई असाध्य बीमारी से ग्रसित व्यक्ति भी लम्बी उम्र जीता है। इसका मतलब ये नहीं कि हमें अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक नहीं रहना चाहिये बल्कि मेरा तो बस यही कहना है कि जन्म और मृत्यु मानव मन की समझ से परे होते हैं।  कुछ लोग इनके पीछे किसी कारण को ढूंढा करते हैं और मेरे जैसे भाग्यवादी लोग इन्हें पूर्वनिर्धारित मानते हैं । 
मैंने ज्यादा साहित्य नहीं पढ़ा। जो कुछ भी घर में दादाजी या पिताजी की अलमारियों से उपलब्ध हो सका बस वहीँ तक पढ़ा है। जिसमें ज्यादातर आध्यात्मिक विषयों की किताबें थीं। तो मेरे बाल मन का उसी और झुकाव बढ़ गया। इसके अलावा घर में धार्मिक, किस्से-कहानियों की, हस्तरेखा , और चिकित्सीय विज्ञान जैसे विषयों पर किताबें भी पढ़ने को मिल जातीं थीं। इसमें मैं नंदन ,चम्पक और चाचा चौधरी जैसी कॉमिक्स बुकों को शामिल नहीं कर रही हूँ क्यूंकि उस वक़्त टीवी पर केवल एकमात्र चैनल दूरदर्शन आता था और बच्चो के मनोरंजन के लिए केवल कॉमिक्स ही हुआ करती थीं। और बाद में कॉलेज में आने पर खुद अपनी रूचि के हिसाब से किताबें खरीदने लगी और पढ़ने लगी। 
ओशो के विचार आपकी आध्यात्मिक यात्रा में तो  सहायक होंगे लेकिन व्यवहारिक जीवन में नहीं,,, वो विरले ही होते हैं जो इन विचारों को साथ लेकर व्यवहारिक जीवन जी लेते हैं। 
मई के महीने की इस चिलचिलाती गर्मी में एक जगह ऐसी भी है जहाँ आप हमेशा असीम शीतलता महसूस करेंगे , बाँके बिहारी का प्रांगण …खस खस  और केवड़े की खुशबू वाले फव्वारे और बेला के फूलों की तेज़ खुशबू... मन को मोह लेने वाला वातावरण ....गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू होते ही और मई के महीने के आखिर में पड़ने  वाली पहली बारिश की फुहार … खुदबखुद हम वहां की तरफ चल देते थे… हमारी  उस जगह से जुड़ाव की एक और वजह थी कि मंदिर से दो कदम की दूरी पर ही हमारी ननिहाल थी…जब दोपहर में सब सो जाते थे तो मैं और मेरे मामा की बेटी चुपके से बाहर निकल आते। आस पास के प्राचीन मंदिरों में जाने क्या ढूँढ़ते फिरते थे … और फिर अपने ठिकाने पर पहुँच जाते थे… कुछ देर उस दुर्लभ आकर्षण वाले श्याम सलोने को निहारते फिर पूरे मंदिर का चक्कर लगाते …उन दिनों मंदिर की सेवा का कार्य गोसाईं होने के कारण हमारे ही रिश्तेदारों को मिला हुआ था… सो मंदिर के ऊपरी मंजिल के कमरों में भी दौड़भाग मचाया करते थे …मैं और मेरी बहन गले में बेला और गुलाब के फूलों की माला और माथे पर गोपीचंदन लगाये हुए गोपी बने घूमा करते …उस ज़माने में शाम को संध्या आरती के लिए पट खुलने के समय सफ़ेद तांत की सारी पहने बहुत सी बंगालन भी दिखा करती थीं … जो अब  काफी समय से नजर  नहीं आतीं…लेकिन हमारी ननिहाल में खाना बनाने से लेकर कुएं से पानी भरने आदि कार्य यह बंगालन ही करती थीं.…इनकी खासबात यह थी कि अगर गलती से भी हम इन्हें छू भर लेते थे तो ये गुस्से में कांपती हुई बांग्ला में गाली देती थीं … वृन्दावन में उस समय हर घर में एक कुंआ होता था , मैं बहन के साथ जिस के भी घर जाती पहले वहां कुआँ देखती थी … बहुत डर लगता था मुझे कुओं से … एक और जगह थी जहाँ मुझे डर लगता था और वो था नानी का पूजाघर …वहां हमारा जाना मना था …वो एक बाहर बड़ा सा हॉल था.…जिसमें हलकी रौशनी रहती थी.…जहां बड़ी बड़ी अष्टधातु की राधा कृष्ण की मूर्तियां थीं.… प्राणप्रतिष्ठित उन मूर्तियों की सेवा पूजा बड़े नियम से होती थी....पहले लोरी गाकर उन्हें जगाया जाता , फिर स्नान और श्रंगार होता फिर नज़र उतरी जाती और माखन मिश्री और मेवे का भोग  लगाया जाता … मैं इस सारी  प्रक्रिया को  चौखट पर बैठे ध्यान से देखा करती....मेरी बहन ने जब से मुझे बताया था कि पट बंद होते ही ये सारी मूर्तियां जीवित हो जाती हैं  मैं उनके पास नही जाती थीं... छुट्टियां ख़त्म होने पर भी मेरा वहां से आने का मन नही करता था … समय के साथ मेरा वहां जाना काम होता गया.… इधर मैं पढ़ाई में व्यस्त हो गई और नानी का भी देहांत हो गया …लेकिन आज भी गर्मियां होते ही मेरा मन करता है कि माँ के साथ वहां रहने जाऊं और उन यादों को दुबारा से जीउँ....

मैं अपने बच्चों से कभी यह नहीं कहती की वो मेरे जैसा बनें, वे जैसे हैं मैं उन्हें वैसे ही पसंद करती हूँ। मैं उन पर अपनी सपनो का बोझ कभी नहीं डालती । मैं चाहती  वो स्वतंत्र हो। माँ  बाप की अपेक्षाएं बच्चों पर  अतिरिक्त भार रख देती हैं जिसके उनका बौद्धिक विकास प्रभवित होता है । मैं चाहती हूँ कि वे आजाद पक्षियों की तरह अपनी कल्पनाओं के आकाश में उड़े । 
 ओ हेनरी की कहानी 'लास्ट लीफ ' ज्यादातर हम सभी ने पढ़ी है। एक कलाकार की ज्यादा गहराई में सोचने की आदत जब तक सकारात्मक हो तो वह उसे आसमान की बुलंदियों तक पहुंचाने में कामयाब करती है। जब एक दिन उसी कलाकार को उसका अकेलापन सालने लगता है तो उसकी ज्यादा सोचने की आदत नकारात्मक सोच हीन भावना पैदा करते भी देर नहीं लगाती। वॉशिंगटन चौक के टूटे-फ़ूटे और विचित्र, 'ग्रीनविच ग्रामनामक मोहल्ले में दुनियाभर के कलाकार आकर जमा होने लगे। 
वहीँ एक मकान की तीसरी मंजिल पर सू जौर जान्सी का स्टूडियो था। जोहंसी बिमार पड़ गयी है और निमोनिया की वजह से मर रही है। वह अपने कमरे की खिड़की के बाहर एक लता (बेल) से गिरते हुए पत्तों को देखती है और निर्णय कर लेती है कि जब अंतिम पत्ता गिरेगा तो वो मर जायेगी। तब सू ने उससे ऐसा न सोचने के लिए मना किया और उसे ऐसा सोचने से रोकने की कोशिश की।
एक बेहराम नामक बुढ़ा निराश कलाकार उनके नीचे के मकान में रहता है। वह दावा करता है कि वो एक अति उत्तम रचना का निर्माण करेगा, यद्दपि उसने कभी यह कार्य आरम्भ नहीं किया। सू उसके पास जाती है और उसे बताती है कि उसकी दोस्त निमोनिया से मर रही है और जोहंसी दावा कर रही है कि जब उसके कमरे की खिड़की के बाहर की लता का अन्तिम पत्ता गिरेगा तो वह मर जायेगी। बेहराम ने इसका मजाक उडाया और इसे उसकी मुर्खता बताया लेकिन जैसा कि वह इन दो युवा कलाकारों का रक्षक था — अतः उसने जोहंसी और लता को देखने का निर्णय किया।
रात में एक बहुत ही बुरी आँधी आती है। सू खिड़कियाँ और पर्दे बंद कर देती है और जोहंसी को सोने के लिए कहती है, सुबह, जोहंसी लता को देखना चाहती है कि सभी पत्ते गिर चुके हैं लेकिन उसे आश्चर्य होता है कि अभी भी एक पत्ता बचा हुआ है।
जब जोहंसी हैरान हुई कि वह अब भी वहीं था, तो वह हठ करती है कि यह आज गिरेगा। लेकिन ऐसा नहीं होता है और वह ना ही रात को गिरता है और न ही अगले दिन। जोहंसी को मान लेती है कि यह पत्ता उसे यह दिखाने के लिए ही वहाँ रुका हुआ है कि वह कितनी निर्बल है जो उसने मृत्यू चाहने जैसा पाप किया। उसने अपने आप को जीने के लिए पुनः तैयार किया और दिनभर में बहुत सुधार आता है।
सू बोली ," मेरी भोली बिल्ली तुझसे एक बात कहनी है। आज सुबह अस्पताल में मिस्टर बेहरमैन की निमोनिया से म्रत्यु हो गयी। वह सिर्फ़ दो रोज बीमार रहा। परसों सुबह ही चौकीदार ने उसे अपने कमरे में दर्द से तड़पता पाया था। उसके कपड़े-यहां तक कि जूते भी पूरी तरह से भीगे हुए और बर्फ के समान ठंडे हो रहे थे   उसके कमरे से एक जलती हुई लालटेन एक नसैनी दो-चार ब्रश और फ़लक पर कुछ हरा और पीला रंग मिलाया हुआ मिला। जरा खिड़की से बाहर तो देख-दीवार के पास की उस अन्तिम पत्ती को। क्या तुझे कभी आश्चर्य नहीं हुआ कि इतनी आंधी और तूफ़ान में भी वह पत्ती हिलती क्यों नहींप्यारी सखी यही बेहरमैन की बेस्ट रचना थी जिस रात को अन्तिम पत्ती गिरी उसी रात उसने उसे बनाया था।" 

जीवन में कुछ भी सरलता से नहीं होता… हर काम को शुरू करने कुछ  कठनाइयों का सामना करना पड़ता है... यहाँ तक कि सुबह जल्दी उठने के लिए भी आपको प्रयास करने पड़ते हैं ,,लेकिन जीवन के विषय में एक बहुत ही दिलचस्प तथ्य ये है कि जो कार्य जितना अधिक मुश्किल होता है उसका परिणाम भी उतना ही अधिक संतुष्टि देने वाला और लाभदायक होता है … !! 
मैंने बहुत दिनों से कोई लम्बी पोस्ट नही लिखी ...  व्यस्तता इतनी रही कि उन वन लाइनर्स को लिखने के बाद  ही लगता था कि कहीं मैंने वक़्त तो ज़ाया नहीँ कर दिया...  इतवार का दिन मैं घूमने फिरने और आराम करने के लिए बचा कर रखती हूँ।  हफ्ते भर के काम शनिवार को ही निपटा कर इत्मिनान से अपने मनपसंद गाने सुनती हूँ .. दोस्तों से गप्पे लड़ाती हूँ.... और घूमने जाती हूँ....  आज घर में मेहमान थे तो कहीं भी जाना नही हो पाया  ....दिन यूँही निकल गया.... और शाम हो गई ... फिर लगा कि ये भी क्या इतवार था, आया और चला गया...ये अलग बात है कि दिन भर दोस्तों के फोन आते रहे... मेरे साथ अक्सर ये होता है... जब एक दम फालतू और अकेली होती हूँ तो सारे दोस्त और कजन व्यस्त हो जाते हैं और जिस दिन व्यस्त रहूँ तो एक के बाद एक वो सब फोन किये जाते हैं....  
शुक्रिया सभी का ... जरा सा बीमार क्या हुई दोस्तों को फ़िक्र हो गई ... इतना प्यार और क्या चाहिए जीने के लिए, सच ! लेकिन सच कहूँ कभी कभी बीमार होना भी अच्छा लगता है ...जिन्दगी की व्यस्तताएँ जब ज्यादा बढ़ जाये और दुनियादारी , घरग्रहस्थी के बीच फंस कर तुमसे तुम्हारा दिन का वो एक हिस्सा भी छिन जाये कि तुम्हे लगे कि भागने का वक़्त आ गया ... बिस्तर पर आराम फरमाते हुए लोगो से तुम्हे जलन होने लगे ..और तुम आराम करनेने को तरस जाओ तो समझ लो कि तुम्हारा खुद का शरीर तुम्हारे हक के लिए आवाज़ उठाएगा और  कुछ एक दिनों के लिए तुम मालिक ऐ आज़म की तरह अपने आरामगाह में पहुंचा दी जाओगी ...भाई मैं तो इस मौके का पूरा पूरा फायदा उठाती हूँ ...जाने फिर कब इस तरह आराम फरमाने का मौका मिले ... दिन भर टीवी देखो ...किताबें पढो ...फेसबुक पर जाकर पुरानी पोस्टें पढ़ो ...बिस्तर पर लेटे लेटे सब पर हुक्म चलाओ और वो सब काम करो जो तुम करना तो चाहते थे लेकिन व्यस्तता के चलते कर नहीं पाते थे ...और इन सब चीज़ों से ज्यादा मुझे अच्छा लगता है उसका मासूम और फिक्रमंद चेहरा..शादी के शुरुआती दिनों में जब हम दोनों में से कोई बीमार पड़ता था तो होमिओपैथी के जीनियस और हमारे फॅमिली डॉक्टर शिवदत्त शर्मा अंकल कहा करते थे, do you know wife is half mother and husband  is half father.... तो ये सबसे बेहतरीन मौका होता है मेरे लिए उसको इस तरह केयर करते हुए देखना....तो फिर किस बात की चिंता है ....आराम बड़ी चीज़ है मुँह ढक के सोइए। ....:D:D 
मेरा कैफ़ी साहब से तआर्रुफ़ -मेरा इनके गीतों से शुरुआती परिचय कुछ इस तरह हुआ कि उम्र का वो दौर जब प्रेम को समझने के लिए हम कविताओं फ़िल्मी गानो का सहारा लेते थे , मुझे सुकून देती थी तो इनकी कुछ गज़ले। ये बात उस वक़्त की है जब इंटरनेट नहीं था ,बस अख़बार थे , किताबें थी, मैगज़ीन थीं, एक टेपरिकॉर्डर था जो मेरे पीजी के कमरे में बजता  था,  'तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो', 'झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है के नहीं', 'वक़्त ने किया क्या हसीं सितम' , 'तुम्हारी जुल्फ के साये में शाम करता चलूँ'। अजीब सुकून मिलता था , सच कहूँ तो  पूरी जिंदगी इन  कुछ ग़ज़लों के आप पास सिमट के रह गयी थी। मैं एक आम लड़की थी जो दुनिया के साथ चलने की कोशिश में लगी थी, कैफ़ी आज़मी जी की उन नज़्मो के सहारे अपनी शामें काटा करती। जिसने भी जिंदगी में इश्क़ किया है उसने कैफ़ी साहब को पढ़ा  होगा , दिल से सुना होगा। इनकी ग़ज़लें उन इश्क़ करने वालो के लिए कुरान की आयतों की तरह थीं, उनके बारे में थीं , उनके आस पास के समाज के बारे में थीं। लगता था जैसे प्रेम को शब्दों का जामा पहना दिया हो किसी ने। हर लफ्ज़ दिल में उतरता हुआ। अचानक ही एक दिन किसी मैगज़ीन में इनकी  नज़्म "औरत" को पढ़ा ,
 उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
ज़िन्दगी जहद में है सब्र के काबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू कांपते आँसू में नहीं
उड़ने खुलने में है नक़्हत ख़म-ए-गेसू में नहीं
ज़न्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे....
  बस फिर तय कर लिया कि इनका लिखा सब पढ़ कर ही दम लेंगे।  मैं अक्सर दोस्तों की महफ़िल में 'मकान', 'दायरे' और कभी 'बहरूपणी ' पढ़ती हुई नज़र आने लगी। फिर मुफलिसी के उस दौर में जब महीने के शुरुआत में ही वो छोटी सी तनख्वाह ख़त्म हो जाया करती मैं उस वक़्त भी पैसे बचाकर 'आवारा सजदे' और 'कैफियत'  खरीद लाई. आखिर इन्हें पढ़े बिना चैन कहाँ था? मेरी उन किताबों को मेरे अलावा हमारे पूरे ग्रुप ने पढ़ा, बाद में 'आखिर ए शब' और 'सरमाया' भी पढ़ी।
इक जुनून था, नशा था कैफी आज़मी जी की कविताओं का, उनका लिखा हर शब्द मेरी डायरी में था, किसी अखबार की कटिंग, किसी मैगजीन में छपी, कोई भी कविता मुँह जबानी याद थी , मैं खुद को तैयार करती थी, थिएटर के लिए, कला के लिए, लेखन के लिए, मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी, वापस कमरे पर आकर डूब जाती थी , इन्हीं सब में ...या फिर शाम को मौकटेल पीते थे, जिंजर, लेमन दिल्ली हाट पर, या चाय ब्रैड पकौड़ा हौजखास मे, आई आईटी मैस पर,  कई दोस्त थे, कोई बिहार से, कोई लखनऊ, बनारस, हम सब शाम को अपनी दिन भर की भड़ास निकालते थे, कविताएँ, कहानियाँ कोई फिल्म कुछ भी, लड़ जाते थे, लेकिन अगले दिन फिर साथ , आज कैफी आज़मी को सुबह से पढ़ रही हूँ तो वो वक्त याद आ गया, काश उस रोज कैफी आजमी की नज्म पढ़ते हुए हमने उन पलों की कोई तस्वीर ली होती ...

शोषित वर्ग के शायर कैफ़ी साहब -उर्दू के जाने माने शायर एवं गीतकार, पद्म श्री विभूषित जनाब कैफ़ी आज़मी हिन्दुस्तान के आलातरीन शायरों में शुमार किये जाते हैं। केवल ग्यारह वर्ष की उम्र में ये शेर लिख कर कैफ़ी आज़मी साहब ने सबको हैरान कर दिया था।
 "इतना तो जिदगी में किसी की खलल पड़े,
 हँसने में हो सुकून न रोने से कल पड़े, 
जिस तरह हंस रहा हूँ मैं ,पी-पी के गर्म अश्क़ ,
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े...." 
 उर्दू शायरी के उस सुनहरे दौर में यूँ तो और भी कई शायर हुए लेकिन उर्दू शायरी को सामाजिकता से जोड़ने का श्रेय कैफ़ी आज़मी साहब को जाता है। कैफ़ी आज़मी प्रगतिशील शायरों की अग्रिम कतार के शायर थे। उनके जनवादी शेर उस वक़्त के शोषित और पीड़ित वर्ग के दिल की आवाज बन गए, उनके जख्मों की मरहम बन गए.                  
ग़ुर्बत की ठंडी छाँव में याद आई उस की धूप,
क़द्र-ए-वतन हुई हमें तर्क-ए-वतन के बाद
 हर व्यक्ति जो प्रगतिशील आंदोलनों से होगा , उसने इनके लिखे गीत जरूर गए होंगे , इनकी नज़्मो को पढ़ा होगा। इनसे जुड़ी किताबो और लेखों से पता चलता है कि इनके घर का माहौल भी धार्मिक था लेकिन लखनऊ पहुँचते ही ये कॉमरेड हो गए। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से इनका जुड़ना भी इसी श्रृंखला की शुरुआत थी, जिसमें इन्होंने कलम को शोषण के खिलाफ हथियार बनाया था।  , अपनी नज़्म "औरत " को लिख कर उन्होंने पहली बार उर्दू शायरी के जरिए एक क्रांति की शुरुआत की। चाहें सामाजिक अव्यवस्था का विषय हो, या औरतों की बदहाली की दास्ताँ ,उन्होंने अपनी शायरी में हर उस बात का जिक्र किया जिससे समाज में रंजोग़म था..... 
 इंसाँ की ख़्वाहिशों की कोई इंतिहा नहीं,
दो गज़ ज़मीं भी चाहिए दो गज़ कफ़न के बाद

फ़िल्मों में कैफ़ी आज़मी साहब का योगदान - उनकी स्क्रिप्ट भी साम्यवाद को दर्शाती हुई नज़र आईं। उनके अलावा कौन लिख सकता है फिल्म गर्म हवा और मंथन जैसी स्क्रिप्ट। उर्दू को फिल्मो में जगह दिलाने का काम भी कैफ़ी आज़मी साहब ने किया।  चाहें हँसते जख्म हो, हकीकत फिल्म के गीत हों या हीर राँझा के डॉयलोग्स हों, उन्होंने हिंदी फिल्मो के लिरिक्स में उर्दू के प्रयोग से एक नई परंपरा को जन्म दिया।  'मैंने एक फूल जो सीने में दबा रखा था  , उसके परदे में तुम्हे दिल से लगा रखा था ,सबसे जुदा  मेरे दिल का अंदाज़ सुनो , मेरी आवाज़ सुनो " यह गीत  पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के अंतिम संस्कार के दौरान फिल्माए द्रश्य पर रिकॉर्ड किया गया। "कर चले हम फिदा जानो तन साथियो , अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों" लिख कर कैफ़ी साहब ने अपनी लेखनी को अमर कर दिया।  
अपने आखिरी दिनों में कैफ़ी साहब मुम्बई छोड़ कर अपने गाँव रहने आ गए थे, कहते हैं जब इन्हें ब्रेन हेमरेज हुआ तो ठीक होने के बाद ये बोले कि चलिए इस बहाने जिंदगी पर एक नज़्म तो लिखने को मिली और उस वक़्त लिखी हुई नज़्म का नाम उन्होंने जिंदगी रखा। 10 मई 2002 में ये अपने करोड़ों चाहने वालों को छोड़ कर इस दुनिया से विदा हो गए।  
मेरा कैफ़ी साहब से तआर्रुफ़ -मेरा इनके गीतों से शुरुआती परिचय कुछ इस तरह हुआ कि उम्र का वो दौर जब प्रेम को समझने के लिए हम कविताओं फ़िल्मी गानो का सहारा लेते थे , मुझे सुकून देती थी तो इनकी कुछ गज़ले। ये बात उस वक़्त की है जब इंटरनेट नहीं था ,बस अख़बार थे , किताबें थी, मैगज़ीन थीं, एक टेपरिकॉर्डर था जो मेरे पीजी के कमरे में बजता  था,  'तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो', 'झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है के नहीं', 'वक़्त ने किया क्या हसीं सितम' , 'तुम्हारी जुल्फ के साये में शाम करता चलूँ'। अजीब सुकून मिलता था , सच कहूँ तो  पूरी जिंदगी इन  कुछ ग़ज़लों के आप पास सिमट के रह गयी थी। मैं एक आम लड़की थी जो दुनिया के साथ चलने की कोशिश में लगी थी, कैफ़ी आज़मी जी की उन नज़्मो के सहारे अपनी शामें काटा करती। जिसने भी जिंदगी में इश्क़ किया है उसने कैफ़ी साहब को पढ़ा  होगा , दिल से सुना होगा। इनकी ग़ज़लें उन इश्क़ करने वालो के लिए कुरान की आयतों की तरह थीं, उनके बारे में थीं , उनके आस पास के समाज के बारे में थीं। लगता था जैसे प्रेम को शब्दों का जामा पहना दिया हो किसी ने। हर लफ्ज़ दिल में उतरता हुआ। अचानक ही एक दिन किसी मैगज़ीन में इनकी  नज़्म "औरत" को पढ़ा ,
 उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
ज़िन्दगी जहद में है सब्र के काबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू कांपते आँसू में नहीं
उड़ने खुलने में है नक़्हत ख़म-ए-गेसू में नहीं
ज़न्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे....
  बस फिर तय कर लिया कि इनका लिखा सब पढ़ कर ही दम लेंगे।  मैं अक्सर दोस्तों की महफ़िल में 'मकान', 'दायरे' और कभी 'बहरूपणी ' पढ़ती हुई नज़र आने लगी। फिर मुफलिसी के उस दौर में जब महीने के शुरुआत में ही वो छोटी सी तनख्वाह ख़त्म हो जाया करती मैं उस वक़्त भी पैसे बचाकर 'आवारा सजदे' और 'कैफियत'  खरीद लाई. आखिर इन्हें पढ़े बिना चैन कहाँ था? मेरी उन किताबों को मेरे अलावा हमारे पूरे ग्रुप ने पढ़ा, बाद में 'आखिर ए शब' और 'सरमाया' भी पढ़ी।
इक जुनून था, नशा था कैफी आज़मी जी की कविताओं का, उनका लिखा हर शब्द मेरी डायरी में था, किसी अखबार की कटिंग, किसी मैगजीन में छपी, कोई भी कविता मुँह जबानी याद थी , मैं खुद को तैयार करती थी, थिएटर के लिए, कला के लिए, लेखन के लिए, मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी, वापस कमरे पर आकर डूब जाती थी , इन्हीं सब में ...या फिर शाम को मौकटेल पीते थे, जिंजर, लेमन दिल्ली हाट पर, या चाय ब्रैड पकौड़ा हौजखास मे, आई आईटी मैस पर,  कई दोस्त थे, कोई बिहार से, कोई लखनऊ, बनारस, हम सब शाम को अपनी दिन भर की भड़ास निकालते थे, कविताएँ, कहानियाँ कोई फिल्म कुछ भी, लड़ जाते थे, लेकिन अगले दिन फिर साथ , आज कैफी आज़मी को सुबह से पढ़ रही हूँ तो वो वक्त याद आ गया, काश उस रोज कैफी आजमी की नज्म पढ़ते हुए हमने उन पलों की कोई तस्वीर ली होती ...

शोषित वर्ग के शायर कैफ़ी साहब -उर्दू के जाने माने शायर एवं गीतकार, पद्म श्री विभूषित जनाब कैफ़ी आज़मी हिन्दुस्तान के आलातरीन शायरों में शुमार किये जाते हैं। केवल ग्यारह वर्ष की उम्र में ये शेर लिख कर कैफ़ी आज़मी साहब ने सबको हैरान कर दिया था।
 "इतना तो जिदगी में किसी की खलल पड़े,
 हँसने में हो सुकून न रोने से कल पड़े, 
जिस तरह हंस रहा हूँ मैं ,पी-पी के गर्म अश्क़ ,
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े...." 
 उर्दू शायरी के उस सुनहरे दौर में यूँ तो और भी कई शायर हुए लेकिन उर्दू शायरी को सामाजिकता से जोड़ने का श्रेय कैफ़ी आज़मी साहब को जाता है। कैफ़ी आज़मी प्रगतिशील शायरों की अग्रिम कतार के शायर थे। उनके जनवादी शेर उस वक़्त के शोषित और पीड़ित वर्ग के दिल की आवाज बन गए, उनके जख्मों की मरहम बन गए.                  
ग़ुर्बत की ठंडी छाँव में याद आई उस की धूप,
क़द्र-ए-वतन हुई हमें तर्क-ए-वतन के बाद
 हर व्यक्ति जो प्रगतिशील आंदोलनों से होगा , उसने इनके लिखे गीत जरूर गए होंगे , इनकी नज़्मो को पढ़ा होगा। इनसे जुड़ी किताबो और लेखों से पता चलता है कि इनके घर का माहौल भी धार्मिक था लेकिन लखनऊ पहुँचते ही ये कॉमरेड हो गए। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से इनका जुड़ना भी इसी श्रृंखला की शुरुआत थी, जिसमें इन्होंने कलम को शोषण के खिलाफ हथियार बनाया था।  , अपनी नज़्म "औरत " को लिख कर उन्होंने पहली बार उर्दू शायरी के जरिए एक क्रांति की शुरुआत की। चाहें सामाजिक अव्यवस्था का विषय हो, या औरतों की बदहाली की दास्ताँ ,उन्होंने अपनी शायरी में हर उस बात का जिक्र किया जिससे समाज में रंजोग़म था..... 
 इंसाँ की ख़्वाहिशों की कोई इंतिहा नहीं,
दो गज़ ज़मीं भी चाहिए दो गज़ कफ़न के बाद

फ़िल्मों में कैफ़ी आज़मी साहब का योगदान - उनकी स्क्रिप्ट भी साम्यवाद को दर्शाती हुई नज़र आईं। उनके अलावा कौन लिख सकता है फिल्म गर्म हवा और मंथन जैसी स्क्रिप्ट। उर्दू को फिल्मो में जगह दिलाने का काम भी कैफ़ी आज़मी साहब ने किया।  चाहें हँसते जख्म हो, हकीकत फिल्म के गीत हों या हीर राँझा के डॉयलोग्स हों, उन्होंने हिंदी फिल्मो के लिरिक्स में उर्दू के प्रयोग से एक नई परंपरा को जन्म दिया।  'मैंने एक फूल जो सीने में दबा रखा था  , उसके परदे में तुम्हे दिल से लगा रखा था ,सबसे जुदा  मेरे दिल का अंदाज़ सुनो , मेरी आवाज़ सुनो " यह गीत  पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के अंतिम संस्कार के दौरान फिल्माए द्रश्य पर रिकॉर्ड किया गया। "कर चले हम फिदा जानो तन साथियो , अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों" लिख कर कैफ़ी साहब ने अपनी लेखनी को अमर कर दिया।  
अपने आखिरी दिनों में कैफ़ी साहब मुम्बई छोड़ कर अपने गाँव रहने आ गए थे, कहते हैं जब इन्हें ब्रेन हेमरेज हुआ तो ठीक होने के बाद ये बोले कि चलिए इस बहाने जिंदगी पर एक नज़्म तो लिखने को मिली और उस वक़्त लिखी हुई नज़्म का नाम उन्होंने जिंदगी रखा। 10 मई 2002 में ये अपने करोड़ों चाहने वालों को छोड़ कर इस दुनिया से विदा हो गए।