रविवार, 15 जनवरी 2017

मेरा कैफ़ी साहब से तआर्रुफ़ -मेरा इनके गीतों से शुरुआती परिचय कुछ इस तरह हुआ कि उम्र का वो दौर जब प्रेम को समझने के लिए हम कविताओं फ़िल्मी गानो का सहारा लेते थे , मुझे सुकून देती थी तो इनकी कुछ गज़ले। ये बात उस वक़्त की है जब इंटरनेट नहीं था ,बस अख़बार थे , किताबें थी, मैगज़ीन थीं, एक टेपरिकॉर्डर था जो मेरे पीजी के कमरे में बजता  था,  'तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो', 'झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है के नहीं', 'वक़्त ने किया क्या हसीं सितम' , 'तुम्हारी जुल्फ के साये में शाम करता चलूँ'। अजीब सुकून मिलता था , सच कहूँ तो  पूरी जिंदगी इन  कुछ ग़ज़लों के आप पास सिमट के रह गयी थी। मैं एक आम लड़की थी जो दुनिया के साथ चलने की कोशिश में लगी थी, कैफ़ी आज़मी जी की उन नज़्मो के सहारे अपनी शामें काटा करती। जिसने भी जिंदगी में इश्क़ किया है उसने कैफ़ी साहब को पढ़ा  होगा , दिल से सुना होगा। इनकी ग़ज़लें उन इश्क़ करने वालो के लिए कुरान की आयतों की तरह थीं, उनके बारे में थीं , उनके आस पास के समाज के बारे में थीं। लगता था जैसे प्रेम को शब्दों का जामा पहना दिया हो किसी ने। हर लफ्ज़ दिल में उतरता हुआ। अचानक ही एक दिन किसी मैगज़ीन में इनकी  नज़्म "औरत" को पढ़ा ,
 उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
ज़िन्दगी जहद में है सब्र के काबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू कांपते आँसू में नहीं
उड़ने खुलने में है नक़्हत ख़म-ए-गेसू में नहीं
ज़न्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे....
  बस फिर तय कर लिया कि इनका लिखा सब पढ़ कर ही दम लेंगे।  मैं अक्सर दोस्तों की महफ़िल में 'मकान', 'दायरे' और कभी 'बहरूपणी ' पढ़ती हुई नज़र आने लगी। फिर मुफलिसी के उस दौर में जब महीने के शुरुआत में ही वो छोटी सी तनख्वाह ख़त्म हो जाया करती मैं उस वक़्त भी पैसे बचाकर 'आवारा सजदे' और 'कैफियत'  खरीद लाई. आखिर इन्हें पढ़े बिना चैन कहाँ था? मेरी उन किताबों को मेरे अलावा हमारे पूरे ग्रुप ने पढ़ा, बाद में 'आखिर ए शब' और 'सरमाया' भी पढ़ी।
इक जुनून था, नशा था कैफी आज़मी जी की कविताओं का, उनका लिखा हर शब्द मेरी डायरी में था, किसी अखबार की कटिंग, किसी मैगजीन में छपी, कोई भी कविता मुँह जबानी याद थी , मैं खुद को तैयार करती थी, थिएटर के लिए, कला के लिए, लेखन के लिए, मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी, वापस कमरे पर आकर डूब जाती थी , इन्हीं सब में ...या फिर शाम को मौकटेल पीते थे, जिंजर, लेमन दिल्ली हाट पर, या चाय ब्रैड पकौड़ा हौजखास मे, आई आईटी मैस पर,  कई दोस्त थे, कोई बिहार से, कोई लखनऊ, बनारस, हम सब शाम को अपनी दिन भर की भड़ास निकालते थे, कविताएँ, कहानियाँ कोई फिल्म कुछ भी, लड़ जाते थे, लेकिन अगले दिन फिर साथ , आज कैफी आज़मी को सुबह से पढ़ रही हूँ तो वो वक्त याद आ गया, काश उस रोज कैफी आजमी की नज्म पढ़ते हुए हमने उन पलों की कोई तस्वीर ली होती ...

शोषित वर्ग के शायर कैफ़ी साहब -उर्दू के जाने माने शायर एवं गीतकार, पद्म श्री विभूषित जनाब कैफ़ी आज़मी हिन्दुस्तान के आलातरीन शायरों में शुमार किये जाते हैं। केवल ग्यारह वर्ष की उम्र में ये शेर लिख कर कैफ़ी आज़मी साहब ने सबको हैरान कर दिया था।
 "इतना तो जिदगी में किसी की खलल पड़े,
 हँसने में हो सुकून न रोने से कल पड़े, 
जिस तरह हंस रहा हूँ मैं ,पी-पी के गर्म अश्क़ ,
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े...." 
 उर्दू शायरी के उस सुनहरे दौर में यूँ तो और भी कई शायर हुए लेकिन उर्दू शायरी को सामाजिकता से जोड़ने का श्रेय कैफ़ी आज़मी साहब को जाता है। कैफ़ी आज़मी प्रगतिशील शायरों की अग्रिम कतार के शायर थे। उनके जनवादी शेर उस वक़्त के शोषित और पीड़ित वर्ग के दिल की आवाज बन गए, उनके जख्मों की मरहम बन गए.                  
ग़ुर्बत की ठंडी छाँव में याद आई उस की धूप,
क़द्र-ए-वतन हुई हमें तर्क-ए-वतन के बाद
 हर व्यक्ति जो प्रगतिशील आंदोलनों से होगा , उसने इनके लिखे गीत जरूर गए होंगे , इनकी नज़्मो को पढ़ा होगा। इनसे जुड़ी किताबो और लेखों से पता चलता है कि इनके घर का माहौल भी धार्मिक था लेकिन लखनऊ पहुँचते ही ये कॉमरेड हो गए। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से इनका जुड़ना भी इसी श्रृंखला की शुरुआत थी, जिसमें इन्होंने कलम को शोषण के खिलाफ हथियार बनाया था।  , अपनी नज़्म "औरत " को लिख कर उन्होंने पहली बार उर्दू शायरी के जरिए एक क्रांति की शुरुआत की। चाहें सामाजिक अव्यवस्था का विषय हो, या औरतों की बदहाली की दास्ताँ ,उन्होंने अपनी शायरी में हर उस बात का जिक्र किया जिससे समाज में रंजोग़म था..... 
 इंसाँ की ख़्वाहिशों की कोई इंतिहा नहीं,
दो गज़ ज़मीं भी चाहिए दो गज़ कफ़न के बाद

फ़िल्मों में कैफ़ी आज़मी साहब का योगदान - उनकी स्क्रिप्ट भी साम्यवाद को दर्शाती हुई नज़र आईं। उनके अलावा कौन लिख सकता है फिल्म गर्म हवा और मंथन जैसी स्क्रिप्ट। उर्दू को फिल्मो में जगह दिलाने का काम भी कैफ़ी आज़मी साहब ने किया।  चाहें हँसते जख्म हो, हकीकत फिल्म के गीत हों या हीर राँझा के डॉयलोग्स हों, उन्होंने हिंदी फिल्मो के लिरिक्स में उर्दू के प्रयोग से एक नई परंपरा को जन्म दिया।  'मैंने एक फूल जो सीने में दबा रखा था  , उसके परदे में तुम्हे दिल से लगा रखा था ,सबसे जुदा  मेरे दिल का अंदाज़ सुनो , मेरी आवाज़ सुनो " यह गीत  पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के अंतिम संस्कार के दौरान फिल्माए द्रश्य पर रिकॉर्ड किया गया। "कर चले हम फिदा जानो तन साथियो , अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों" लिख कर कैफ़ी साहब ने अपनी लेखनी को अमर कर दिया।  
अपने आखिरी दिनों में कैफ़ी साहब मुम्बई छोड़ कर अपने गाँव रहने आ गए थे, कहते हैं जब इन्हें ब्रेन हेमरेज हुआ तो ठीक होने के बाद ये बोले कि चलिए इस बहाने जिंदगी पर एक नज़्म तो लिखने को मिली और उस वक़्त लिखी हुई नज़्म का नाम उन्होंने जिंदगी रखा। 10 मई 2002 में ये अपने करोड़ों चाहने वालों को छोड़ कर इस दुनिया से विदा हो गए।  
मेरा कैफ़ी साहब से तआर्रुफ़ -मेरा इनके गीतों से शुरुआती परिचय कुछ इस तरह हुआ कि उम्र का वो दौर जब प्रेम को समझने के लिए हम कविताओं फ़िल्मी गानो का सहारा लेते थे , मुझे सुकून देती थी तो इनकी कुछ गज़ले। ये बात उस वक़्त की है जब इंटरनेट नहीं था ,बस अख़बार थे , किताबें थी, मैगज़ीन थीं, एक टेपरिकॉर्डर था जो मेरे पीजी के कमरे में बजता  था,  'तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो', 'झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है के नहीं', 'वक़्त ने किया क्या हसीं सितम' , 'तुम्हारी जुल्फ के साये में शाम करता चलूँ'। अजीब सुकून मिलता था , सच कहूँ तो  पूरी जिंदगी इन  कुछ ग़ज़लों के आप पास सिमट के रह गयी थी। मैं एक आम लड़की थी जो दुनिया के साथ चलने की कोशिश में लगी थी, कैफ़ी आज़मी जी की उन नज़्मो के सहारे अपनी शामें काटा करती। जिसने भी जिंदगी में इश्क़ किया है उसने कैफ़ी साहब को पढ़ा  होगा , दिल से सुना होगा। इनकी ग़ज़लें उन इश्क़ करने वालो के लिए कुरान की आयतों की तरह थीं, उनके बारे में थीं , उनके आस पास के समाज के बारे में थीं। लगता था जैसे प्रेम को शब्दों का जामा पहना दिया हो किसी ने। हर लफ्ज़ दिल में उतरता हुआ। अचानक ही एक दिन किसी मैगज़ीन में इनकी  नज़्म "औरत" को पढ़ा ,
 उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
ज़िन्दगी जहद में है सब्र के काबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू कांपते आँसू में नहीं
उड़ने खुलने में है नक़्हत ख़म-ए-गेसू में नहीं
ज़न्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे....
  बस फिर तय कर लिया कि इनका लिखा सब पढ़ कर ही दम लेंगे।  मैं अक्सर दोस्तों की महफ़िल में 'मकान', 'दायरे' और कभी 'बहरूपणी ' पढ़ती हुई नज़र आने लगी। फिर मुफलिसी के उस दौर में जब महीने के शुरुआत में ही वो छोटी सी तनख्वाह ख़त्म हो जाया करती मैं उस वक़्त भी पैसे बचाकर 'आवारा सजदे' और 'कैफियत'  खरीद लाई. आखिर इन्हें पढ़े बिना चैन कहाँ था? मेरी उन किताबों को मेरे अलावा हमारे पूरे ग्रुप ने पढ़ा, बाद में 'आखिर ए शब' और 'सरमाया' भी पढ़ी।
इक जुनून था, नशा था कैफी आज़मी जी की कविताओं का, उनका लिखा हर शब्द मेरी डायरी में था, किसी अखबार की कटिंग, किसी मैगजीन में छपी, कोई भी कविता मुँह जबानी याद थी , मैं खुद को तैयार करती थी, थिएटर के लिए, कला के लिए, लेखन के लिए, मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी, वापस कमरे पर आकर डूब जाती थी , इन्हीं सब में ...या फिर शाम को मौकटेल पीते थे, जिंजर, लेमन दिल्ली हाट पर, या चाय ब्रैड पकौड़ा हौजखास मे, आई आईटी मैस पर,  कई दोस्त थे, कोई बिहार से, कोई लखनऊ, बनारस, हम सब शाम को अपनी दिन भर की भड़ास निकालते थे, कविताएँ, कहानियाँ कोई फिल्म कुछ भी, लड़ जाते थे, लेकिन अगले दिन फिर साथ , आज कैफी आज़मी को सुबह से पढ़ रही हूँ तो वो वक्त याद आ गया, काश उस रोज कैफी आजमी की नज्म पढ़ते हुए हमने उन पलों की कोई तस्वीर ली होती ...

शोषित वर्ग के शायर कैफ़ी साहब -उर्दू के जाने माने शायर एवं गीतकार, पद्म श्री विभूषित जनाब कैफ़ी आज़मी हिन्दुस्तान के आलातरीन शायरों में शुमार किये जाते हैं। केवल ग्यारह वर्ष की उम्र में ये शेर लिख कर कैफ़ी आज़मी साहब ने सबको हैरान कर दिया था।
 "इतना तो जिदगी में किसी की खलल पड़े,
 हँसने में हो सुकून न रोने से कल पड़े, 
जिस तरह हंस रहा हूँ मैं ,पी-पी के गर्म अश्क़ ,
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े...." 
 उर्दू शायरी के उस सुनहरे दौर में यूँ तो और भी कई शायर हुए लेकिन उर्दू शायरी को सामाजिकता से जोड़ने का श्रेय कैफ़ी आज़मी साहब को जाता है। कैफ़ी आज़मी प्रगतिशील शायरों की अग्रिम कतार के शायर थे। उनके जनवादी शेर उस वक़्त के शोषित और पीड़ित वर्ग के दिल की आवाज बन गए, उनके जख्मों की मरहम बन गए.                  
ग़ुर्बत की ठंडी छाँव में याद आई उस की धूप,
क़द्र-ए-वतन हुई हमें तर्क-ए-वतन के बाद
 हर व्यक्ति जो प्रगतिशील आंदोलनों से होगा , उसने इनके लिखे गीत जरूर गए होंगे , इनकी नज़्मो को पढ़ा होगा। इनसे जुड़ी किताबो और लेखों से पता चलता है कि इनके घर का माहौल भी धार्मिक था लेकिन लखनऊ पहुँचते ही ये कॉमरेड हो गए। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से इनका जुड़ना भी इसी श्रृंखला की शुरुआत थी, जिसमें इन्होंने कलम को शोषण के खिलाफ हथियार बनाया था।  , अपनी नज़्म "औरत " को लिख कर उन्होंने पहली बार उर्दू शायरी के जरिए एक क्रांति की शुरुआत की। चाहें सामाजिक अव्यवस्था का विषय हो, या औरतों की बदहाली की दास्ताँ ,उन्होंने अपनी शायरी में हर उस बात का जिक्र किया जिससे समाज में रंजोग़म था..... 
 इंसाँ की ख़्वाहिशों की कोई इंतिहा नहीं,
दो गज़ ज़मीं भी चाहिए दो गज़ कफ़न के बाद

फ़िल्मों में कैफ़ी आज़मी साहब का योगदान - उनकी स्क्रिप्ट भी साम्यवाद को दर्शाती हुई नज़र आईं। उनके अलावा कौन लिख सकता है फिल्म गर्म हवा और मंथन जैसी स्क्रिप्ट। उर्दू को फिल्मो में जगह दिलाने का काम भी कैफ़ी आज़मी साहब ने किया।  चाहें हँसते जख्म हो, हकीकत फिल्म के गीत हों या हीर राँझा के डॉयलोग्स हों, उन्होंने हिंदी फिल्मो के लिरिक्स में उर्दू के प्रयोग से एक नई परंपरा को जन्म दिया।  'मैंने एक फूल जो सीने में दबा रखा था  , उसके परदे में तुम्हे दिल से लगा रखा था ,सबसे जुदा  मेरे दिल का अंदाज़ सुनो , मेरी आवाज़ सुनो " यह गीत  पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के अंतिम संस्कार के दौरान फिल्माए द्रश्य पर रिकॉर्ड किया गया। "कर चले हम फिदा जानो तन साथियो , अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों" लिख कर कैफ़ी साहब ने अपनी लेखनी को अमर कर दिया।  
अपने आखिरी दिनों में कैफ़ी साहब मुम्बई छोड़ कर अपने गाँव रहने आ गए थे, कहते हैं जब इन्हें ब्रेन हेमरेज हुआ तो ठीक होने के बाद ये बोले कि चलिए इस बहाने जिंदगी पर एक नज़्म तो लिखने को मिली और उस वक़्त लिखी हुई नज़्म का नाम उन्होंने जिंदगी रखा। 10 मई 2002 में ये अपने करोड़ों चाहने वालों को छोड़ कर इस दुनिया से विदा हो गए।  

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