मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

साल के आखिरी दिनों का हिसाब …यानि अलविदा कहना एक और साल को। बिलकुल वैसे ही जैसे जाते हुए मुसाफिर को एक बार फिर मुड़ कर देखना … लेकिन जाने क्यों मुझे आज भी विदा कहना नहीं आया.....  मेरे लिए ये वक़्त बहुत डिप्रेसिव हो जाता है …  वैसे ही जैसे हर बार सनसेट पॉइंट आते ही मैं मुंह फेर लेती हूँ.……  सूरज को डूबते हुए देखना वैसे भी कहते हैं अच्छा नहीं होता। वक़्त के गुज़र जाने का एहसास एक खालीपन छोड़ जाता है.....  फिर भी ये वो वक़्त है जब पुराना पीछे छूटता है और हम उम्मीद करते हैं नवीनता की। यूँ तो कुछ खास नहीं बदलता है लेकिन हम फिर भी उम्मीद करते हैं कि नया साल हम सब के लिए कुछ नया, कुछ खास लेकर आएगा।
 साल दर साल कुछ नए रिश्ते बनते जाते है और कुछ पुराने बन जाते हैं। हमारी आदत है कि हम टूटे हुए रिश्तों को भी सहेज के रखना चाहते हैं.… और वहीँ नए रिश्तों का जश्न भी मनाते हैं। समय जो हमसे लेता है उसे किसी न किसी रूप में लौटना चाहता है। लेकिन फिर भी टूटे हुए रिश्तों को भूल कर आगे बढ़ जाना इतना आसान नहीं है.....  खरोंचों की तरह रह-रह कर तकलीफ देते हैं। यही वजह है कि मुझे चिड़ होती है जब लोग हिसाब लगाने लगते हैं गुज़रे हुए साल का....... क्या खोया क्या पाया गिनने लगते हैं उँगलियों पर। और मैं भी अनजाने ही वही करने लगती हूँ यह जान कर भी कुछ नहीं मिलेगा मुझे। कुछ और रिश्तों के दूर हो जाने का दर्द कचोटने लगेगा दिल को। फिर अचानक ख्याल आता है उन ढेर सारे छोटे-छोटे लम्हों का जो इस साल थोड़ी सी ख़ुशी की उम्मीद दे गए …… उन चंद दोस्तों का जो मिल कर मुझे हँसा गए ……  और ये एहसास दिला गए कि जिंदगी अभी भी ख़ूबसूरत है। बस उन्हीं चंद लम्हों को देखकर आगे बढ़ने का ख्याल आता है। और मैं दिल ही दिल शुक्रिया अदा करने लगती हूँ उन दोस्तों का … और ईश्वर का भी … 

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