गुरुवार, 31 जनवरी 2013

"ये गलत कहा किसी ने ,मेरा पता नहीं है ,मुझे ढूँढने की हद तक ,कोई ढूँढता नहीं है।"
ईश्वर है या नहीं इस बात पर अनेक तर्क वितर्क होते रहते हैं। लेकिन एक परम शक्ति के अस्तित्व के होने पर हम सबको विश्वास करना ही पड़ता है।बात आध्यात्म की हो या धार्मिक कर्मकांडों की, सब कुछ हमारे विश्वास पर टिका हुआ है। अनेक धर्मों  में अनेक प्रकार की मान्यताएं हैं। जहाँ हिन्दू धर्म में अनेको देवी-देवताओं की कथाएँ कहीं जाती हैं वही उसी हिन्दू धर्म में अहम् ब्रह्स्मामि  का भी उल्लेख  मिलता है।
आत्मा हो या परमात्मा कोई तो है जो हमारी जीवन रुपी नैया  का खेवैया है। धर्म के प्रति सब की अलग -अलग मन्यताएं हैं। कोई पूजा -अर्चना आदि से ईश्वर को खुश करना चाहता है, तो कोई स्वयं अपने अन्दर के सत्य से साक्षात्कार करना चाहता है। लौट फिर के बात वहीँ आ जाती है कि  ईश्वर प्राप्ति कैसे हो?  यूँ तो मैं  भी एक ब्राह्मण हूँ । वृन्दावन में बांके बिहारी मंदिर के पास ही के मकान  में मेरी ननिहाल है। मेरी नानी बेहद धार्मिक होने के साथ साथ छुआ-छूत  को मानने वालीं थी। जीवन भर वे राधा-कृष्ण की अष्ट धातु की मूर्तियों की सेवा पूजा में लगी ृ रहीं । उनके विचारों में साफ-सफाई  रखने को इश्वर भक्ति माना  जाता था। खाना बनाने और पूजा करने के लिए वे तांत की सफ़ेद साडी का प्रयोग करतीं थीं। अपनी रसोई में वे खड़िया से लकीर बना  लेती थी जिसे पार करना सबके लिए वर्जित होता था। माथे पर गोपी चन्दन लगाये हुए, दूध सी सफ़ेद काया और राधे राधे जपती  वे मुझे किसी देवी सी लगती थीं। उनके विचारों ने मेरे बाल मन को बहुत प्रभावित किया। और शायद यही कारण  है कि  मेरी रसोई और पूजाघर में आज भी उनके विचारों की  छाप सी दिखाई देती है। ये और बात है की इससे परिवार के अन्य सदस्यों को कुछ असुविधा सी होती है। मेरे अन्दर के ब्राह्मण ने मुझे धार्मिक तो बनाया लेकिन कहीं -कहीं अध्यात्म के प्रति मेरे झुकाव ने मुझे अपने अन्दर के सत्य को भी ढूँढने के लिए उकसाया। मेरे अन्दर पूजा-पाठ और अध्यात्म के बीच एक युद्ध सा चलता रहा। अंत में  मैं इस निष्कर्ष पर पहुंची कि हम चाहें कितने भी देवी-देवताओं को पूजते रहे लेकिन जीवन तभी सार्थक होता है जब हम अपने मन को इश्वर से जोड़ पाएं। मेरी शादी भी एक बेहद धार्मिक परिवार में हुई , सास शास्त्रों की ज्ञाता थीं। रीति-रिवाज और पूजा पाठ में उनका बेहद विश्वास था। आधुनिक सोच की होने के बाद भी मैं उन्ही परम्पराओं में ढलती चली गई । देवी-देवताओं में मेरी आस्था उम्र के साथ और भी बड़ती  गई।लेकिन वहीं मेरे अन्दर ये सोच और भी प्रबल होती गई कि  ईश्वर को मानने का मतलब सिर्फ मंदिर में बैठकर पूजा-पाठ करना नहीं है, बल्कि अपने अन्दर के इश्वर को ढूँढना भी जरूरी है। ईश्वर से हमारा मन का रिश्ता है। उसे इन आँखों से देख पाना संभव नहीं है बल्कि उसके लिए अपनी मन की आँखों को खोलना जरूरी है। और लोगों की तरह मैं भी रोज मंदिर जा कर पूजा अर्चना करती हूँ लेकिन मेरे लिए आज भी पूजा का वास्तविक अर्थ ईश्वर से संवाद स्थापित करना है। ईश्वर को पाने के लिए हम यहाँ वहां भटकते तो हैं लेकिन अपने अन्दर के ईश्वर से कभी मिल नहीं पाते। पर उससे मिलना क्या इतना ही आसान  है। जिस सत्य को पाने के लिए ऋषि मुनि हिमालय पर जाकर  तपस्या करते हैं उसे हम जैसे सामान्य मनुष्य कैसे पा सकते हैं? फिर भी सबके अपने -अपने तरीके हैं, सबकी अपनी अपनी सोच है। कोई भजन कीर्तन से कान्हा को बुलाना चाहता है तो कोई मस्जिद में अजान  देता है। पर वो सबकी सुनता है और सबको राह दिखाता है। छोटा हो या बड़ा, अमीर हो  या गरीब  । बस जरूरत है उसे दिल से पुकारने की।

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