कहते हैं कि हर आम आदमी के अन्दर एक गाँधी, एक दार्शनिक ,एक विचारक, एक इंकलाबी छुपा हुआ होता है।वो दुनिया की खामियों को महसूस भी करता है और उन्हें बदलना भी चाहता है। लेकिन परिस्थितियाँ उसे चुप रह सब कुछ बर्दाश्त करने पर मजबूर करती है। और हो भी क्यों न , भीड़ से अलग चलने के लिए जिस साहस की जरूरत होती है ,जो एक आम आदमी के लिए जुटा पाना संभव नहीं हो पाता। हम सब के जीवन में बहुत से ऐसे मौके आते हैं जब हम न चाह कर भी चुप रहते है। या हमारी परिस्थितियां हमें कुछ बोलने से रोक देती हैं । उस वक़्त तो हम चुप रह जाते हैं लेकिन बाद में वो पल हमें अन्दर ही अन्दर कचोटते रहते हैं। मेरे साथ भी गुज़रे वर्षों में एक ऐसा ही वाकया हुआ था। जिस पर मुझे आज तक बेहद पछतावा है, अभी कुछ ही वर्षों पहले इनका ट्रान्सफर दूसरे शहर हुआ था, नया शहर ,नए लोग मैं दोनों छोटे बच्चों के साथ घर सेट करने में लगी हुयी थी। हमारे फ्लैट के आसपास कौन रहता था मुझे इसकी बिलकुल खबर नहीं थी। दोनों बच्चे चलने लगे थे और जरा भी दरवाजा खुला रह जाने पर बाहर निकल जाते थे। घर फर्स्ट फ्लोर पर होने के कारण में हमेशा दरवाजा बंद किये रहती थी। मुझे हमेशा बच्चों का सीड़ियों से गिर जाने का डर लगा रहता था। रोज़ की तरह जब एक दिन जब मेरे पति ओफिस गए हुए थे ,दोपहर के वक़्त मैं बच्चों को सुलाकर टीवी के चैनल बदल रही थी। बाहर कॉलोनी में सन्नाटा था। वैसे भी महानगरों में दिनदहाड़े चोरी और डकेती की घटनाएं इतनी बड़ गयी हैं कि महिलाएं सचेत रहने लगी हैं। लोग दिन में भी अपने घरों में ताला डाले रहते हैं।पुरुष काम पर चले जातें हैं और अधिकांश महिलाएं दोपहर में सास बहु के सीरियल देखने में व्यस्त हो जाती हैं। गर्मियों की ऐसी ही एक सूनसान दोपहरी में अचानक मुझे किसी औरत के जोर-जोर से रोने और चिल्लाने की आवाज आई। वो जोर जोर से लोगो को मदद के लिए पुकार रही थी।लेकिन घर थोडा दूरी पर होने के कारण मुझे कुछ स्पष्ट सुनाई नहीं दे रहा था। वहीँ पास ही के एक मकान में निर्माण कार्य चल रहा था,और मजदूर काम कर रहे थे। मुझे लगा कि शायद आवाज सुन कर मजदूर उस महिला के घर जाकर देखें , लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ना ही पास के किसी भी घर से कोई भी मदद के लिए निकल कर आया। मैं खुद को रोक नहीं पा रही थी,जी किया की भाग कर जाऊं और देखूं की उस महिला के साथ क्या हुआ है। लेकिन छोटे-छोटे बच्चो को घर में अकेला छोड़ कर जाने की हिम्मत मैं नहीं जुटा पाई। महिला चेख -चेख कर मदद के लिए पुकारती रही और फिर एक चीख के साथ वहां सन्नाटा छा गया। धीरे-धीरे उस मकान के बाहर लोगो की भीड़ जुटने लगी। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। बाद में मुझे पता चला कि उस महिला के इकलोते बेटे ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी। मैं स्तब्ध थी, उससे भी ज्यादा अपने आप से शर्मिंदा थी कि उस महिला के पुकारने पर भी मैं मदद के लिए उसके घर नहीं जा पाई। साथ ही मुझे हैरानी भी हुई कि वहां आस पास रहने वाले लोग कितने स्वार्थी थे जो इतनी आवाजें सुन कर भी अपने घरों से बाहर नहीं निकले। आज इतना समय बीत जाने पर भी मैं अपने आप को माफ़ नहीं कर पाती हूँ। मेरे दिल में आज भी यही पछतावा है कि अगर उस दिन मैं वहां जा कर देख लेती तो शायद वह महिला अपने इकलोते बेटे को नहीं खोती । महानगरों में ऐसी घटनाएँ आए दिन घटती रहती है ,जब हमारी आँखों के सामने ही कोई बेबस दम तोड़ देता है और हम तमाशा देखने के अलावा कुछ नहीं करते। आज जब समाज प्रगति कर रहा है। हम सब आधुनिकता की दौर में एक दूसरे से आगे निकलने के प्रयास में हैं, हमारे अन्दर की मानवता कहीं धीरे धीरे दम तो नहीं तोड़ रही है?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें