मंगलवार, 6 जनवरी 2015

वृन्दावन में हमारे घर के बाहर एक साधु बाबा बैठे रहते थे।  वो हमेशा एक वाक्य को दोहराते रहते थे।  ''  घट रही है , बढ़ रही है'' । लोग उनसे पूछते थे कि  बाबा क्या घट रही है और बढ़ रही है तो वे बताते कि ''उमरिया घट रही है, और तृष्णा बढ़ रही है ''। सच ही तो है जैसे जैसे हमारी उम्र बढ़ती जाती है , हम परिपक्व होते जाते  है हमारी जीवन के प्रति तृष्णा भी बढ़ती जाती है। इसी तृष्णा का नाम है माया। जो हमें अपने जाल में उलझाती जाती है और हम उलझते जाते हैं। जीवन पूर्वनिर्धारित है। ब्रह्माण्ड का एक -एक कण  अपनी पूर्व निर्धारित आयु के अनुसार जीता है।  समय किसी के रोके से नहीं रुकता है। जीवन एक उत्सव है  हर्षोल्लास के साथ जियें।  मृत्यु से पहले ही उसका शोक क्या मनाना। वह तो जब आएगी तब आएगी ही। लेकिन जरूरी बात है कि जीवन जीने लायक बनाएं। व्यर्थ को हटाएं और जो आवश्यक है उसे सहेजें। जीवन  की परिपूर्णता उपलब्धियों पर निर्भर नहीं करती बल्कि इस बात में है कि उसे सही तरह से जियें।  या वैसे जियें जैसे हमने हमेशा सोचा था।  हम सब इन बंधनों में स्वयं बंधते हैं और फिर खुद को घिरा हुआ महसूस करते हैं। और एक दिन हम स्वयं से ही बहुत दूर हो जाते हैं और चाह कर भी जीवन को अपने हिसाब से जी नही पाते। तो जरूरी है कि समय रहते हम जीवन को व्यवस्थित करना सीख लें। और एक एक पल को वैसे जियें जैसी जीने की हमने कल्पना की हो।  आप अपने जीवन में खुद ड्राइविंग सीट पर बैठें और स्टेयरिंग अपने हाथों में रखें। तभी जीवन की गाड़ी सही गति से चलेगी और आप अपनी मंजिल पर पहुंचेंगे। 

1 टिप्पणी:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 19 दिसम्बर 2015 को लिंक की जाएगी ....
    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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